पुस्तक प्रवेश ने लो स्थान संस्कृत से छीन कर देश की भाषा प्राकृत या पाली को दिया था, वह अब महायान सम्प्रदाय मैं फिर से संस्कृत को प्रदान किया गया । ज्ञान मार्ग की जगह बहुत दरजे तक कर्मकाण्ड और भक्ति ने ले ली।। धीरे धीरे आजकल के वैष्णव मत, शैवमत और तान्त्रिक सम्प्रदाय ने मिलकर बौद्ध मत को भारत से निकाल बाहर कर दिया और प्राचीन हिन्दू धर्म को फिर से उसका स्थान प्रदान कर दिया । निस्सन्देह उच्च श्रेणी के थोड़े से लोगों के लिए उपनिषद और दर्शनशास्त्र के सूक्ष्म उपदेश उस समय भी मौजूद थे, किन्तु सर्वसाधारण के लिए धर्म का पथ खासा अन्धकारमय और गन्दा हो चला था । जिस जातिभेद को बौद्ध धर्म ने नष्ट कर स्त्रियों और शूद्रों को मनुष्यत्व के अधिकार प्रदान करना चाहा था. वह जातिभेद फिर अपने पूरे जोर के साथ कायम हो चुका था । ग्रामणों की श्रेष्ठता और अन्य वर्णो, खासकर शूद्रों की हीनता ने फिर से भारतीय समाज को जकड़ कर उसके विकाश को असम्भव कर दिया था। पण्डों और पुरोहितों के विशेषाधिकार फिर से कायम हो गए थे। और अधिकांश प्राम जनता के लिए सिवाय जात पात और ऊँच नीच के नियमों का पालन करने, प्रसंस्थ देवी देवताओं, भयकर 'रुद्र' और प्रचण्ड 'शक्ति' की मूर्तियों को पूजने, जप, तप, यज्ञ, हवन, पूजा, पाठ, ब्राह्मणों को दान, नीर्थयात्रा, मन्तर, जन्तर और जटिल कर्मकाण्ड के और कोई धर्म न रह गया था । ज्ञान का सन्तोष केवल ऊपर के इने गिने लोगों के लिए था । शेष जन समुदाय के लिए कर्मकाण्ड और अन्धविश्वास । उस समय के भारतीय साहित्य, चीनी और अरब यात्रियों के वृत्तान्तों, सिक्कों और शिलालेखों, सबसे इसी शोचनीय हालत का पता चलता है।
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