१० पुस्तक प्रवेश निस्सन्देह सूफ्रियों का मार्ग भक्तिमार्ग था, उनका सिद्धान्त अहैत था, इश्क उनकी पूजा श्री और ब्रा में लीन होकर तद्वत् हो जाना उनकी निजात (मोक्ष) थी। दक्षिण में धर्म सुधार की लहरें ___ईसा की आठवीं सदी से पहले भारत की धार्मिक अव्यवस्था का ज़िक्र हम अपर कर चुके हैं। बौद्ध मत समाप्त हो चुका था और शैव मत, वैष्णव मत और शाक्त मत ने उसकी जगह ले ली थी। बौद्ध मत के उच्च सदाचार और मनुष्यमात्र की समता के सिद्धान्तों के स्थान पर फिर से असंख्य देवी देवताओं, मत मतान्तरों, कर्मकाण्ड, जात पाँत, ऊँच नीच और हजारों अन्य पाखण्डों ने अपना साम्राज्य जमा लिया था । मदुरा के जैन राजा ने जर शैव प्रचारक तिरुज्ञान के उपदेश से जैन मत त्याग कर शैव मत स्वीकार किया और मदुरा की शेष प्रजा ने जैन मत को छोड़ने से इनकार किया तो राजा ने तिरुज्ञान की सलाह से अनेक जैनों को फाँसी पर लटका दिया । धर्म के नाम पर इस तरह के अत्याचार उस समय जैनों और बौद्धों के ऊपर जगह जगह सुनने में थाने थे। ऐसी हालत में उन हजारों मुसलमान फकीरों और सूफ़ियों के सिद्धान्तों और उनके चरित्र का भारतीय जनता पर हितकर प्रभाव पड़ना, जो शुरू की सदियों में अधिकतर दक्खिन और पच्छिम में आकर बसे, एक स्वाभाविक घटना थी। अनेक हिन्दू विद्वानों के चित्तों में भी उस समय अपने देश की जटिल धार्मिक स्थिति को सुलझाने की चिन्ता उत्पन्न हुई । एक दूसरे के बाद शङ्कर, रामानुज, निम्बादित्य, वासव, वल्लभाचार्य, माधव इत्यादि अनेक सन्त, महारमा भारत के दक्खिन में पैदा हुए, जिन्होंने अपने अपने डर से
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