पुस्तक प्रवेश उन दिनों गुजरात "समस्त ईरान, तातार, टरकी, शाम, बारबरी, अरब, इथियोपिया (अबीसीनिया, अफरीका) और अन्य कई देशों को अपने यहाँ के बने हुए "रेशमी और सूती कपड़े" मुहय्या करता था। उस समय के यात्री लिखते हैं कि स्वयं भारत के अन्दर कपड़े की खपत उस समय मामूली न थी। करीब करीब सब ऊपर की और बीच की श्रेणी के लोग रेशम पहनते थे और बड़े बड़े चोरो पहनते थे। खास कर रेशम के धंधे ने सभ्राट अकबर के समय में अपूर्व उन्नति की। अबुलफज़ल लिखता है कि अकबर ने खुद रेशम के धंधे का परिश्रम के साथ अध्ययन किया, चीन और अन्य देशों से कारीगर बुला कर नौकर रक्खे और लाहौर, आगरा, फतहपुर, अहमदाबाद इत्यादि में राज के खर्च पर बड़े बड़े कारखाने खुलवाए । अकबर के समय में जब कि गेहूँ आजकल के बज़न के हिसाब से एक रुपए का एक मन वारह सेर अाता था, चार श्राने में एक सुन्दर खालिस ऊन का कम्बल ख़रीदा जा सकता था। अबुलफजल लिखता है कि लाहौर के अन्दर उस समय शाल बनाने के एक हज़ार सर- कारी कारखाने थे, काशमीर और अन्य स्थानों में अलग रहे । आगरे और लाहौर मे दरियों और कालीनों के अनेक सरकारी कारखाने थे। सौ सवा सौ साल पहले तक के ईस्ट इण्डिया कम्पनी के प्रतिनिधि बार बार अपने पत्रों में इंगलिस्तान लिखकर भेजते थे कि इङ्गलिस्तान के बने हुए कपड़ों की भारतीय कपड़ों के मुकाबले में भारत में कोई खपन नहीं हो सकती। पुर्तगाली यात्री पिराई लिखता है कि सत्रवी सदी के शुरू मे बङ्गाल के अन्दर जो अत्यन्त घना बसा हुआ देश था, सूती वस्त्रों का धंधा घर
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