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पृष्ठ:भारत में अंगरेज़ी राज - पहली जिल्द.djvu/२१५

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मुगलो का समय

मुग़ला का समय १७७ मानव प्रेम की जो लहरें उस समय भारत के अन्दर काम कर रही थी वे अभी तक भारतीय जीवन के समस्त क्षेत्र को पूरी तरह अपने वश में न कर पाई थी। निस्सन्देह उस समय इन शक्तियों का ज़ोर था और वह जोर दिन प्रति दिन बढ़ता जा रहा था। किन्तु दूसरी ओर हिन्दू धर्म और इसलाम की प्राचीन संकीर्ण प्रवृत्तियाँ भी अभी तक समाप्त न हुई थीं। रामानन्द ही के चेलों में यदि एक कबीर था तो दूसरा तुलसीदास । दोनों महान थे, दोनों ईश्वर भक्त थे, दोनों का भारत को गर्व है, दोनों ने अपने अपने ढङ्ग से भावी भारत की रचना में कम या ज्यादा भाग भी लिया, किन्तु एक ने अलग अलग धर्मों की दीवारों को तोड़ कर निःशङ्ग भावी सार्वजनिक मानव धर्म का उपदेश दिया और दूसरे का झुकाव अभी तक जात पाँत युक्त मध्यमकालीन हिन्दुत्व की ओर था । बल्लभाचार्य इत्यादि अनेक इस तरह की शक्तियाँ और खास कर शैव और वैष्णव आचार्य समस्त भारत मे मौजूद थे जो राष्ट्र को भविष्य की ओर ले जाने के बजाय उसे अभी तक भूतकाल की संकीर्णताथों में फंसाए रखने की ओर लगे हुए थे। मुसलमानों में भी जब कि एक और शरीयत के कर्मकाण्ड की परवा न करने वाले सूफ़ी और दरवेश मौजूद थे, नो कबीर के समान एक मानवधर्म के प्रचारक थे, दूसरी ओर इस तरह के अदूरदर्शी मुल्लाओं का भी अभी तक अभाव न हुअा था जो अकबर, जहाँगीर और शाहजहाँ तीनों को काफिर बतलाते थे। इन्हीं सङ्कीर्ण मुल्लाओं के पूर्वजों ने मनसूर को सूली पर चढ़ाया था और शम्स तवरेज़ की खाल खिंचवाई थी। निस्सन्देह संसार को किसी भी दूसरी श्रेणी के लोगों से इतनी हानि न पहुंची जितनी विविध धर्मों के उन पुरोहितों, पादरियों या मुल्लाओं से जो अपने धर्म के अन्तर्गत सच्चे भावों,