भारत में अंगरजी राज सन् १७४८ ईसवी में अंगरेज़ी सेना ने पुद्दुचरी पर हमला किया, किन्तु दूप्ले की सेना ने इस बार भी अंगरेजों को हरा दिया। इसी समय यूरोप के अन्दर फ्रांस और इंगलिस्तान के बीच संधि हो गई, जिसमें एक शर्त यह तय हुई कि मद्रास फिर से अंगरेजों के सुपुर्द कर दिया जाय। इस प्रकार करनाटक से अंगरेजों को निकाल दने के विषय में दूप्ले की आशा को एक ज़बरदस्त धक्का पहुंचा और फ्रांसीसियों की बरसों की मेहनत पर पानी फिर गया। किन्तु दूप्ले का हौसला इतनी जल्दी टूटने वाला न था। फ्रांसीसी और अंगरेज़ी कंपनियों में प्रतिस्पर्धा बराबर जारी रही। ये दोनों कंपनियाँ इस देश में अपनी अपनी सेनाएं रखती थीं और जहाँ कहीं किसी दो भारतीय नरेशो में लड़ाई होती थी तो एक एक का और दूसरी दूसरे का पक्ष लेकर लड़ाई में शामिल हो जाती थी। भारतीय नरेशों की सहायता के बहाने इनका उद्देश अपने यूरोपियन दुशमन को समाप्त करना होता था। दक्खिन भारत की राजनैतिक अवस्था इस समय बहुत विगड़ी हुई थी। मुगल सम्राट की ओर से दक्खिन भारत में म नाज़िरजंग वहां का सूबेदार था । नाज़िरजंग का एक भतीजा मुजफ्फरजंग अपने चचा को मसनद से उतारकर खुद सूबेदार बनना चाहता था । इसीलिये नाज़िरजंग ने मुज़फ्फरजंग को कैद कर रक्खा था। उधर अनवरुद्दीन करनाटक का नवाव था। किन्तु उससे पहले नवाब दोस्ताली खाँ का दामाद चंदासाहव अनवरुद्दीन को गद्दी मोरचे
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