५७ सिराजुद्दौला सिराजुद्दौला ने बजाय किसी तरह की सखी के इस समय भी । उनके साथ दया का व्यवहार किया। जब उसे सिराजुद्दौला की - यह मालूम हुआ कि अंगरेजों के फल्ता पहुँचने दयालुता पर वहाँ के लोगों ने बाज़ार बंद कर दिए थे जिसकी वजह से अगरेज़ों को रसद् की दिक्कत हो रही थी, तो उसने फ़ौरन हुकुम भेज दिया कि बाज़ार खोल दिए जायें और “बेचारे परदेसियों को खाने पीने के सामान को कोई दिक्कत न होने पाए।" सिराजुद्दौला दिल से चाहता था कि अंगरेज़ अपनी शरारत छोड़कर फिर से बंगाल में तिजारत करने लगे। इसीलिए उसने अपनी विजय के बाद भी कासिमबाजार, कलकत्ते इत्यादि की कोठियों में उनके तिजारती माल को हाथ न लगाया था। सिराजुद्दौला की नीयन यदि कुछ और होती तो कलकत्ते या फल्ता में से कहीं भी इन विदेशी व्यापारियों का एक एक कर खात्मा कर डालना और साथ ही उनके समस्त षड़यंत्रों का अंत कर देना उसके लिए एक बहुत ही आसान काम था। यदि वह ऐसा कर डालता तो कोई निष्पक्ष इतिहास लेखक उसे दोपी भी न ठहरा सकता था। किन्तु उस भोले एशियाई नरेश को इन विदेशियों के चरित्र और उनकी चालों का अभी तक भी पता न था। इस भोलेपन का मूल्य सिराजुद्दौला और उसके देश दोनों को बहुत जबरदस्त चुकाना पड़ा। २० जून सन् १७५६ को अंगरेज कलकत्ते से निकाले गए। १६ अगस्त को कलकत्ते के छिन जाने का समाचार मद्रास पहुँचा।
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