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भारत में अंगरेज़ी राज


उसकी और से सशंक हो गया और जिस उत्साह के साथ वह आक्रामक अहमदशाह के विरुद्ध मराठों की सहायता करना चाहता था, न कर सका।

६ जनवरी सन १७६१ को पानीपत के ऐतिहासिक मैदान में एक अत्यन्त घमासान संग्राम हुआ, जिसमें दोनों ओर के हताहतों की संख्या लाखों तक पहुँच गई। ऐन मौक़े पर सदाशिव के व्यवहार से बेजा़र होकर भरतपुर का राजा अपनी सेना सहित मैदान से हट गया। होलकर तटस्थ रहा। सदाशिव और विश्वासराव दोनों मैदान में काम आए। विजय अहमदशाह की ओर रही। नवाब शुजाउद्दौला ने मजबूर होकर विजयी अहमदशाह के साथ मेल कर लिया। किन्तु अहमदशाह को भी अपनी इस विजय की बहुत ज़बरदस्त क़ीमत देनी पड़ी। उसके इतने अधिक आदमी लड़ाई में काम आए और घायल हुए कि आगे बढ़ने का इरादा छोड़ कर उसे फ़ौरन् अफ़ग़ानिस्तान लौट जाना पड़ा। लौटने से पहले उसने शाहआलम दूसरे को भारत का सम्राट स्वीकार किया और ग़ाज़ीउहीन को हटाकर उसकी जगह नवाब शुजाउद्दौला को दिल्ली को सल्तनत का वज़ीर करार दिया। निस्सन्देह सदाशिव राव को संकीर्णता और अदूरदर्शिता की वजह से पानीपत के मैदान में मराठों को बढ़ती हुई शक्ति चकन्दाचूर हो गई और उसके साथ ही साथ दिल्ली के साम्राज्य और भारत की राष्ट्रीय स्वाधीनता दोनों की आशाएँ कुछ समय के लिए खाक में मिल गई।

प्रोफे़सर सिडनी ओवन ने सच कहा है:―