पुस्तक प्रवरा इन कोमों का इस देश में बस जाना यह बात इतिहास से जाहिर है कि इस बीच जिन शक और पहलव जातियों ने उत्तर भारत के कुछ हिस्सों पर शासन किया चे इस देश में आकर पूरी तरह अस गए और विदेशी रहने के स्थान पर इस देश की अधिक उच्चतर सभ्यता से प्रभावित होकर हर माइनों में भारतवासी बन गए ! उन्होंने भारतीय रहन सहन, भारतीय ढङ्ग के नाम, भारतीय धर्म, भारतीय भाषा, और भारतीय सभ्यता को पूरी तरह अपना लिया। मसलन शक जाति का सबसे मशहर पन्नाट, जिसने भारत में कुशान साम्राज्य की नीव एक्स्त्री, और जिसने सन् ७८ ईसवी के क़रीब अफ़ग़ानिस्तान और सरहदी प्रदेश पर शासन किया, सुप्रसिद्ध सन्नाट कनिष्क था ! कनिष्क ने बौद्धमत स्वीकार किया । उसके सिहासन पर बैठने के समय से ही, उसी की यादगार में शाका नम्वत् का प्रारम्भ हुआ, जिसका अभी तक भारत में उपयोग किया जाता है । सम्राट कनिक का राज दक्शिन में विन्ध्या तक और उत्तर में मध्य एशिया के अलताई पहाड तक फैला हुआ बताया जाता है। कनिष्क की राजधानी पुरुषपुर (पेशावर) थी। बौद्ध धर्म के प्रचार में उसने बहुत बड़ा भाग लिया ! अन्तिम और सबसे बड़ी बौद्ध 'सङ्गति' यानी महासभा का वह संयोजक था। बौद्धमत की महाभान सम्प्रदाय की उसने नींव रक्खी । संस्कृत के प्रचार में उसने बहुत बड़ा हिस्सा लिया। कनिष्क ही के प्रचारकों ने अधिकतर चीन, तातार, तिब्बत और उत्तर एशिया में जाकर बौद्धमत का प्रचार किया। शक जाति के लोग उस समय अपने को हिन्दू क्षत्री कहते थे और क्षत्री ही माने जाते थे। उनके नाम ज्यादातर 'कर्मन्' या "दन' से समास होते
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