दरिया के बीच एक टापू पर है जा सकते हैं। उसे शाह सलीम पठान ने बनवाया था--और उसी के नाम से मशहूर है।
शाही किले के दो दरवाजे शहर को गये हैं, बीच में बहुत खुली जगह छोड़ी गई है। शाहजहाँ ने किले में दो बड़े भारी बाग लगवाये। एक तो उत्तर की तरफ, दूसरा दक्षिण की तरफ और चूँकि दरिया यमुना का पानी इतना नहीं चढ़ता कि इन बागों में पानी मिल सके, इसलिये इससे बड़ा भारी ख़र्च करके सर हिन्द के पास एक गहरी नहर खुदवाई थी। जो देहली से सौ फरसंग की दूरी पर है। यह नहर किले में बहती और पानी की हौजों को भरती है जिनमें शाहजहाँ के हुक्म से खूबसूरत मछलियाँ डाली गई हैं। जिनके सिरों पर सुनहरी कण्ठे थे और हर कण्ठे में एक-एक लाल और एक-एक मोती जड़ा था। यह नहर जमना की तरफ़ के हिस्से के सिवाय तसाम क़िले में इधर-उधर घूमी है। क़िले के सामने पश्चिम की ओर शाही मस्जिद है जिसमें बादशाह सप्ताह में एक बार नमाज़ पढ़ने जाते है।
देहली के बनियों का वर्णन मनूची ने बड़े अद्भुत ढङ्ग से किया है, उसे हम यहाँ उद्धत करते हैं---
बनिये हिन्दुओं की एक क़ौम है। जो न माँस और न मछली खाते हैं। यह लोग प्रायः अनाज, सब्ज़ी, घी और दूध बहुत खाते हैं। यह गाय को घर में रखते और उसकी पूजा के बहुत प्रेमी होते हैं। गउओं पर वह ऐसे मोहित होते हैं कि मृत्यु के समय भी गऊ की पूँछ की हाथ में लेकर मरते हैं। उनका विचार है कि इससे पाप क्षमा हो जाते हैं। और गाय उन्हें आसमान पर उन अग्निमय स्थानों से छुए बग़ैर ले जाती है जिनके कि वह अपने पापमय जीवन के कारण योग्य होते हैं। इनकी इस श्रद्धा की बेवकूफ़ी आश्चर्यजनक है कि यदि इत्तिफ़ाक से गाय उस शख्स पर पेशाब कर दे जो मरते समय उसकी दुम को धोता होता है तो बजाय इसके कि उसे परे हटाये वह बहुत अच्छा समझते हैं और ख्याल करते हैं कि उसका शरीर पवित्र हो गया और बहुत खुशियाँ मनाते हैं।
पाठक समझ लें कि गाय को ऐसा समझना सिर्फ बनिये ही नहीं करते बल्कि तमाम के तमाम हिन्दू उसे पूजनीय समझते हैं। लेकिन इस