पृष्ठ:भारत में इस्लाम.djvu/१३१

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1 १२२ जयसिंह यह पत्र पाकर चिन्ता में पड़ गये। वे राज परिवार के व्यक्ति पर हाथ उठाना ठीक न समझते थे। उन्होंने दिलेरखाँ से सलाह की और औरंगजेब के पत्र को लेकर सुलेमान के खेमे में गये । और पत्र दिखा- कर कहा- "जिस खतरनाक हालत में आप पड़ गये हैं मैं उसे आप से छिपाना मुनासिब नहीं समझता। स्थिति बदल गई । इस समय आपको न दिलेरखाँ पर भरोसा करना चाहिये न दाऊदखाँ पर और न फ़ौज ही पर। आप यदि इस वक्त अपने पिता की मदद को आगे बढ़ेंगे तो आप भी दुर्दशा में पड़ेंगे। अतः मुनासिब है कि श्रीनगर के पहाड़ों में चले जायें। वहाँ राजा के यहाँ आपको आश्रय मिलेगा और वहाँ औरंगजेब भी न पहुँच सकेगा। वहाँ जाकर यहाँ के हालातों पर नज़र रखें और जब मौक़ा देखें चले आवे।" यह सुनते ही शाहजादा समझ गया कि अब कोई मित्र नहीं रह गया। लाचार वह फ़ौज़ को वहीं छोड़ कर कुछ हितैषियों को साथ लेकर चल दिया। सेना जयसिंह और दिलेरखाँ के साथ रही। उसका बहुत सा कीमती सामान और मुहरों से लदा एक हाथी भी इन्होंने ले लिया। रास्ते में भी उसे देहात के लोगों ने बहुत कुछ दिया। ज्यों-त्यों करके वह श्रीनगर पहुंचा। वहाँ के राजा ने उसका सत्कार किया और आश्रय दिया । और कहा- जब तक आप यहाँ हैं मैं प्राण पण से आपके लिये हाज़िर हूँ। इधर सब झगड़ों से निपट कर औरंगजेब ने आगरे से तीन मील दूर एक बाग़ में मुक़ाम किया और बादशाह को एक पत्र लिख कर एक अत्यन्त धूर्त और चालाक आदमी के हाथ भेजा। पत्र का विषय यह था- "दारा शिकोह की कजराई और वेजा ख्यालात के बाइस से जो वाक़आत पेश आये हैं, उनके लिये औरंगजेब को बहुत ही रंज और अफ़- सोस है । हुजूर की तबियत अब अच्छी होती जाती है इसलिये हुजूर की खिद- मत में मुबारिकबाद अर्ज करने और महज़ इस ग़रज़ से कि जो कुछ इर्शाद हो उसकी तामील की जाय, वह आगरे में आया है।" शाहजहाँ भी भारी राजनीतिज्ञ था। उसने सिर्फ यह जवाब जुबानी 1