१२३ दिया “उसकी सआदतमन्दी आर फ़र्मादतमन्दी से हम निहायत खुश हैं।" इसके बाद उसने पत्र में लिखा- "दारा ने जो कुछ किया बेसमझी और नालायक़ो से पुर था। तुम पर तो हम इब्तदा ही से सफ़क्कत रखते हैं, बस तुमको जल्द हमारे पास आना चाहिये ताकि तुम्हारे मश्विरे से उन उमूर का इन्तज़ाम किया जाय जो इस गड़बड़ की बाइस खराब और अबतर पड़े हैं।" पर औरंगजेब एक ही काँइयाँ था, उसने किले में जाने का साहस न किया । उसे भय था कि वह अवश्य कैद कर दिया जायगा । अतः वह बार- बार आने के वादे करता रहा । उधर बड़े-बड़े सरदारों से बातचीत करता रहा । एक दिन उसके बड़े पुत्र मुहम्मद सुलतान ने सहसा क़िले पर अधिकार कर लिया। इससे सब लोग हक्के-बक्के होगये । यह काम बड़ी चालाकी से किया गया। बादशाह इस प्रकार कैद होकर मर्माहत हो गया और उसने मुहम्मद सुलतान को खत लिखा- "मैं तख्त और कुरान मजीद की क़सम खाकर कहता हूँ कि अगर तुम इस वक्त ईमानदारी से बरतोगे तो तुम्हीं को बादशाह बना दूंगा। इस मौके को ग़नीमत जानो और दादा जान को कैद से छुड़ा लो। याद रखो कि इस सवाबे आखिरत के आलावा दुनिया में भी तुम्हें एक दायमी नेकनामी हासिल होगी।" यदि मुहम्मद सुलतान ज़रा साहस करके बादशाह की बात मान लेता तो सब कुछ हो जाता।क्योंकि अब भी बादशाह पर लोगों की श्रद्धा थी, दारा के पतन के बाद यदि बादशाह स्वयं युद्ध को कमर कसता तो न तो औरंग- जेब ही उसके मुकाबले का साहस करताऔर न सरदार उसकी बात टालते । पर वह चतुराई के दाव पेच खेलना चाहता था और उसकी बड़ी बेटी का उसमें भारी हाथ था। अतः वह कुछ भी न कर सका । मुहम्मद सुलतान के भाग्य में भी ग्वालियर के क़िले में दिन काटने बदे थे। अस्तु मुहम्मद सुलतान ने जवाब दिया, “मुझे हुज़र में हाज़िर होने का हुक्म नहीं है। बल्कि ताकीदी हुक्म है कि यहाँ से जल्द क़िले के कुल दरवाजों की कुजियाँ खुद अपनी सुपुर्दगी में लेकर जल्द वापस आऊँ क्योंकि वे हुजूर की क़दम बोसी के निहायत मुश्ताक़ हो रहे हैं।" -
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