६१३८ मक़बरे में दफन कर दो।' अब दारा के कुटुम्ब का हाल सुनिये। उसकी पुत्री तो उसी रात महल में भेज दी गयी, जो कुछ दिन बाद शाहजहाँ और बेगम साहब (जहाँनारा बेगम) की प्रार्थना से उनके सुपुर्द की गई और उसकी बेगम ने पहले ही यह सोचकर कि हमको दुःखों का पहाड़ उठाना पड़ेगा, मार्ग ही में लाहौर में विष खाकर अपने प्राणों का अन्त कर दिया। रहा सिफ़र शिकोह-वह ग्वालियर के दुर्ग में भेज दिया गया, जहाँ कैद किया गया । (दारा शिकोह का सिर २२ वीं अक्तूबर १६५६ को काटा गया था।) "इस लोमहर्षक घटना के बाद जीवनखाँ तुरन्त दरबार में बुलाया गया और कुछ इनाम आदि देकर विदा कर दिया गया। परन्तु यह दुष्ट भी अपनी क्रूरता का फल पाये बिना न रहा । अर्थात् जिस समय यह देहली से लौटकर ऐसे स्थान में पहुँच गया था-जहाँ से उसका देश उससे दस- बारह कोस ही रह गया था, कि कुछ मनुष्यों ने जो पहले से घात लगाये जंगल में बैठे थे-उसे घेर कर मार डाला। "दारा का पुत्र सुलेमान शिकोह श्रीनगर के राजा के यहाँ छिप गया। था । परन्तु राजा को जब बहुत धमकाया गया, तो वह भयभीत हो गया। वह बलपूर्वक पकड़कर दिल्ली लाया गया। जब बादशाह के सामने सुनहरी हथकड़ी पहनाकर लाया गया तो उसके सुन्दर शरीर को घायल और बेबस देखकर दरबारी रोने लगे। औरङ्गजेब ने दुःख और सहानुभूति प्रकट करते हुए कहा- 'खुदा पर नज़र और इत्मीनान रखो कि तुम्हें कुछ ज़रर न पहुँचाया जायगा । बल्कि तुम्हारे साथ मेहरबानी की जायगी। तुम्हारा बाप तो सिर्फ़ इसलिये क़त्ल किया गया था कि वह काफिर था।' इस पर सुलेमान ने हाथ ऊँचाकर और झुककर बादशाह को सलाम किया और कहा-'अगर हुजूर की मन्शा है कि मुझे पोस्त पिलाया जाया करे, बहतर है कि मैं अभी क़त्ल कर दिया जाऊँ।' इस पर बादशाह ने पोस्त न पिलाने की प्रतिज्ञा की और फिर उसे ग्वालियर के किले में कैद कर दिया गया।" मुराद अभी कैद में था, पर उसके प्रशंसक अभी बहुत थे। बादशाह उस काँटे को भी एक-दम काट डालना चाहता था। एक दिन एक सैयद
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