१४० था। उसके गले में बड़े-बड़े मोतियों का एक कण्ठा था, जो हिन्दुओं की माला की तरह पेट पर लटकता था। छः सोने के पायों पर यह तख्त बना है । कहते हैं कि यह बिल्कुल ठोस है और इसमें याक़त और कई प्रकार के हीरे जड़े हुए हैं। मैं उनकी गिनती और मूल्य निश्चित नहीं कर सकता, क्योंकि इसके निकट जाने की किसी को आज्ञा नहीं है। इससे कोई कीमत आदि का पता नहीं लगा सकता, पर विश्वास किया जाय कि इसमें हीरे और जवाहरात बहुत हैं। "मुझे याद है कि इसका मूल्य चार करोड़ रुपया आँका गया था ! यह तख्त शाहजहाँ ने इसलिये बनाया था कि खजाने में पुराने राजाओं और पठानों से लूटे हुए और अमीर-उमरा से नजर में आये हुये जो जवाहरात इकट्ठे हो गये थे, उन्हें लगा देखे । उसकी बनावट और कारीगरी भी उसके जवाहरातों के समान ही है । दो मोर तो मोतियों और जवाहरात से बिल्कुल जड़े हुए हैं। इसको एक फ्रांसीसी कारीगर ने आश्चर्यजनक रीति से बनाया था। "तख्त के नीचे की चौकी पर चाँदी का कटहरा लगा था। ऊपर जरी की झालर का एक बड़ा चॅदुआ टँगा था । उमरा बहुमूल्य वस्त्र पहने खड़े थे, और रेशमी चंदुए, जिनमें रेशम और ज़री के फुदने लगे हुये थे, इतने थे कि गिनती नहीं । बहुत बढ़िया रेशमी क़ालीन बिछे हुये थे। बाहर एक बड़ा भारी खम्भा था, जो सहन में आधी दूर तक फैला था और चाँदी की पत्तियों में मढ़े हुए कटहरों से घिरा था। "इस खेमे के बाहर की ओर लाल रंग का कपड़ा लगा था और भीतर मछलीपट्टम की सुन्दर छींट थी, जो अति उत्तम तथा प्राकृतिक मालूम देती थी। अमीरों को आज्ञा थी कि वे आमखास के चारों ओर की महराबें अपने- अपने खर्च से सजावें। इसके फलस्वरूप सादी दीवारें कमखाब और जरी से ढक गई थीं और जमीन बहुमूल्य कालीनों से भर गई थी।"
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