१५५ इस प्रकार मुग़लों के प्रबल प्रताप के बीच यह छत्रपति उभरने लगा। इन समाचारों को पाकर औरङ्गजेब ने महाराज जयसिंह और सेनापति दिलेरखाँ को एक बड़ी सेना लेकर भेजा । जयसिंह ने बहुत समझा- बुझाकर शिवाजी को सन्धि पर राजी कर लिया। सन्धि की शर्ते दिल्ली भेजी गईं। बादशाह ने भी उन्हें स्वीकार कर लिया। फिर उन्होंने बाद- शाह की तरफ़ से बोजापुर से युद्ध किया, और बादशाह का निमन्त्रण पाकर अपने पुत्र शम्भाजी, पाँच सौ सवार और एक हजार मालवी सैन्य के साथ दिल्ली को प्रस्थान किया। परन्तु औरङ्गजेब ने इस प्रतापी पुरुष का दरबार में सम्मानन ही किया, इससे रुष्ट होकर वे वहाँ से लौट आये। इस पर बादशाह ने इन्हें कैद कर लिया। पर शिवाजी वहाँ से कौशल से निकल भागे। औरङ्गजेब ने उनकी राजा की उपाधि स्वीकार कर ली, और जागीर भी दे दी। अब उन्होंने दक्षिण लौटकर बीजापुर और गोलकुण्डा के नवाबों से युद्ध करके विजय प्राप्त की, और कर ग्रहण किया। उन्होंने दक्षिण में खूब राज्य- विस्तार किया । विवश बादशाह ने महावतखाँ को चालीस हजार सैन्य लेकर दक्षिण को भेजा । पर इस सैन्य ने पूरी हार खाई। इसमें बाईस सेनापति मारे गये, शेष कैद कर लिये गये । यह शिवाजी का प्रथम सम्मुख-युद्ध था। इसके बाद शिवाजी ने विजयोत्सव किया, और राज्य-विधान में संशोधन किये । उपाधियाँ फ़ारसी-संस्कृत में नियत की, सिक्कों में सुधार किया । नर्वदा से कृष्णा नदी पर्यन्त का सारा दक्षिण-भारत उन्हीं के आधीन था। यह महावीर सैंतालीस वर्ष की अवस्था में मृत्यु को प्राप्त हुआ। उस की मृत्यु की खबर सुनकर बादशाह ने कहा-“वह एक महान् सेनापति था। जिस समय मैंने प्राचीन राज्यों को नष्ट करने की चेष्टा की, उस समय सिर्फ़ इसी व्यक्ति ने एक नया राज्य स्थापन कर लिया। मेरी सेना ने उन्नीस वर्ष युद्ध किया, तो भी उसके राज्य की कोई हानि नहीं हुई।" अब राजपूतों का भी विवरण सुनिये। जहाँगीर और उदयपुर के राणा के बीच यह सन्धि हुई थी कि वह स्वयं तथा उसके उत्तराधिकारी राणा होने पर शाही दरबार में उपस्थित न होंगे। प्रत्येक राजा सिंहासना-
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