१६५ अत्याचार और प्रजा-पीड़न करने पर भी किस भाँति पचास वर्ष तक राज्य किया, और समस्त कठिनाइयों को कैसे पार किया ! यह व्यक्ति वास्तव में बुद्धिमान और तीखा, घमण्डी, धूर्त और मुस्तैद था। किसी को मुँह न लगाता था। एक बार का जिक्र है कि इसके किसी उमरा ने खुशामद से कहा-“हुजूर काम में इस क़दर मसरूफ़ हैं कि यह अन्देशा है कि इससे सेहते-जिसमानी बल्कि दिमागी कुव्वत में कुछ फ़र्क आ जाय, और ताक़त को कुछ नुकसान पहुंचे।" यह सुनकर बादशाह ने उस बुद्धिमान उपदेशक की ओर से मुंह फेर लिया-मानो उसकी बात सुनी ही नहीं। फिर कुछ ठहरकर एक और बहुत बड़े अमीर की ओर, जो बड़ा ही विद्वान् और बुद्धिमान था, देखकर कहा- "आप तमाम अहले-इल्म इस बात में मुत्तफ़िकुलराय हैं कि मुश्किल और खौफ के जमाने में जान जोखों में पड़ जाना और जरूरत के वक्त रिआया की बेहतरी के लिये, जिसे खुदा ने उसे सुपुर्द किया है, तलवार पकड़ कर मैदाने-जंग में जान देना बादशाह का फ़र्ज है। मगर इसके बरअक्स यह नेक और बातमीज शख्स [!] है ! यह चाहता है कि रिआया के आराम व आसाइश के लिये जरा भी तकलीफ़ न उठाई जाय । और उनकी [रिआया की] रिफ़ाह की तदबीरों के सोचने में एक रात या एक दिन भी बे-आराम रहे बगैर यह मुकद्दमा हासिल हो जाय । इसकी राय है कि मैं सिर्फ अपनी तन्दुरुस्ती को मुक़द्दम जानू, और ज्यादातर ऐशो-इशरत और आराम व आसाइश के उमूर में मसरूफ़ रहूँ; जिसका नतीजा यह हो सकता है कि मैं इस वसीह सल्तनत के कामों को किसी वजीर के भरोसे छोड़ बैठू। मगर मालूम होता है कि इसने इस अमर पर गौर नहीं किया कि जिस हालत में मुझे खुदा ने बादशाही खानदान में पैदा कर, तख्त पर बिठाया है, तो दुनिया में अपने ज़ाती फ़ायदे के लिये नहीं भेजा, बल्कि औरों को आराम पहुँचाने और मिहनत करने के लिये । मेरा यह काम नहीं है कि अपनी ही आसाइश की फ़िक्र करूं । अलबत्ता रिआया के फ़ायदे की गरज से जिस क़दर आराम लेना जरूरी है, उसका मुजायका नहीं । बजुज़ इसके कि इन्साफ़ और अदा- लत से वैसा ही करना साबित हो-या सल्तनत के क़ायम रखने और मुल्क की हिफ़ाजत के लिये यह बात जरूरी हो । हर सूरत में रिआया की आसा- 1 -
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