पृष्ठ:भारत में इस्लाम.djvu/१७७

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१६८ भी मुझे आपने नावाक़िफ़ रखा । बावजूद कि बादशाह को अपनी हमसाया क़ौमों की ज़बानों से वाकिफ़ होना ज़रूरी है, आपने मुझको अरबी लिखना- पढ़ना सिखाया। इस ज़बान सीखने में मेरी उम्र का एक बड़ा हिस्सा ज़ाया हुआ। मगर, आपने यह समझा कि एक ऐसी ज़बान सिखाकर जो दस बरस मिहनत किये बिना हासिल नहीं हो सकती, गोया मुझ पर बड़ा भारी अहसान किया ! आपको यह सोचना था कि एक शाहजादे को ज्यादा- तर किन-किन इल्मों के पढ़ाने की ज़रूरत है। मगर आपने मुझे ऐसे फ़नों की तालीम दी, जो क़ाज़ियों के लिये मुफ़ीद हैं, और मेरी जवानी के दिन बेफ़ायदा बच्चों की-सी पढ़ाई में बर्बाद किये। "क्या आपको मालूम न था कि छुटपन में, जब कि कूबत-हाफ़िज़ा मजबूत होती है, हज़ारों माकूल बातें जहननशीन हो सकती हैं ? और आसानी के साथ इन्सान ऐसी मुफ़ीद तालीम हासिल कर सकता है, जिससे दिल में निहायत आला खयालात पैदा होते हैं, और जिनसे मैं बड़े-बड़े नुमायां कामों के करने के काबिल हो जाता? क्या नमाज़ सिर्फ अरबी ही के ज़रिये अदा हो सकती है ? और बड़ी-बड़ी इल्मा-हुनर की बातों का जानना क्या अरबी ही के ज़रिये हो सकता है ? आपने हमारे वालिद-मजीद को तो यह समझा दिया था कि हम इसे फ़िलॉसफ़ी पढ़ाते हैं, और मुझे खूब याद है कि बरसों तक ऐसी बेहूदा बातों से आप मेरा दिमाग़ परेशान करते रहे, जो पहिले तो जल्दी समझ में नहीं आती थीं, और समझ में आ जाने पर जल्द भूल जाती थीं ; और ऐसी थीं, जिनको दुनियावी मुआमलात में कुछ ज़रूरत नहीं। आपने उम्र के कई-कई साल ऐसी-ही तालीम में खराब कराये, जो आपको पसन्द थी। मगर जब मैं आपकी तालीम से अलहदा हुआ तो किसी बड़े इल्म के जानने का दावा नहीं कर सकता था। बजुज़ इसके कि चन्द अजीब व ग़रीब बातों का वाक़िफ़ था, जो एक अच्छी समझ के नौजवान शख्स की हिम्मत को पस्त, दिमाग़ को खराब और तबियत को हैरान कर देती हैं। अगर आप मुझे वे बातें सिखाते, जिनसे ज़हन इस क़ाबिल हो जाता कि बगैर सही दलील के किसी बात को तसलीम नहीं करता, या आप मुझको वह सबक़ पढ़ाते, जिससे इन्सान की तबियत ऐसी हो जाती है किदुनिया के इन्कलाबात का उस पर कुछ भी असर नहीं होता, -