और तरक्क़ी या तनज्जुली की हालत में वह एक-सा रहता है, या मुझे कुदरती बातों से आगाह करते-तो मैं उससे भी ज्यादा आपका एहसान मानता–जितना सिकन्दर ने अरस्तू का माना था और अरस्तू से भी ज्यादा इनाम आपकी नज़र करता। मुल्लाजी, नाशुक्रगुज़ारी का झूठा इल्ज़ाम ख्वामख्वाह मुझ पर न लगाइये ! क्या आप यह नहीं जानने थे, कि शाह- जादों को इतनी बात जरूर सिखानी चाहिये कि उनको रिआया के साथ और रिआया को उनके साथ किस तरह का बर्ताव करना चाहिये । और क्या आपको अव्वल ही यह ख्याल कर लेना मुनासिब नहीं था कि मैं किसी वक्त तख्तो-ताज की खातिर व अपनी जान बचाने के लिये तलवार पकड़- कर अपने भाइयों से लड़ने पर मजबूर होऊँगा ; क्योंकि आप यह खूब जानते हैं कि सलातीन-हिन्द की औलाद को हमेशा ऐसे मुआमिलात पेश आते रहते हैं। पर, क्या आपने कभी लड़ाई का फ़न या किसी शहर का मुहासरा करना, या फ़ौज की सफ़ आराई का तरीक़ा मुझे सिखाया? यह मेरी खुश- क़िस्मती थी, कि मैंने इन मुआमिलातों में ऐसे लोगों से कुछ सीख लिया, जो आपसे ज्यादा अक़लमन्द थे। बस, अपने गाँव को चले जाइये, और अब से कोई न जाने कि आप कौन हैं, और आपका क्या हाल है ?" एक बार औरङ्गजेब ने वृद्ध बादशाह शाहजहाँ को कैद में एक पत्र लिखा था। वह पत्र भी पढ़ने योग्य है । उससे बादशाह की तत्परता, राज- नीतिज्ञता और दूरदर्शिता प्रकट होती है । वह पत्र इस प्रकार है- "क्या हुजूर यह चाहते हैं कि मैं सख्ती के साथ पुरानी रस्मों का पाबन्द रहूँ, और जो कोई नौकर-चाकर मर जाय, उसकी जायदाद जब्त करलू ? शाहाने मुगलिया का यह दस्तूर रहा है कि अपने किसी अमीर या दौलतमन्द महाजन के मरने के बाद, बल्कि बाज-3 न-औक़ात तो दम निकल जाने से पहले, उसके सब माल-असबाब का पता लगाते थे, और जब तक उसके नौकर-चाकर कुल माल व दौलत, बल्कि अदना-अदना जेवर भी, न बतलायें, तब तक उन पर मार-पीट होती और वे कैद किये जाते थे, गोकि यह दस्तूर बेशक फ़ायदेमन्द है, मगर जो नाइन्साफ़ी और बेरहमी इसमें है उससे कौन इन्कार कर सकता है ? अगर हर-एक अमीर नेकनामखाँ जैसा मामला करे, या कोई औरत उस महाजन की तरह अपने मालिक की दौलत
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