१८० समझता है कि भेंट देने वाला अपनी आधीनता प्रकट करने के तौर पर यह भेंट दे रहा है और इसे लेना बादशाह का अधिकार है। बाहर की भेंट लेने पर भी यही ख्याल किया जाता है । क्योंकि उन्हें वसूल करते समय बादशाह प्रकट करता है कि मानो उसे स्वीकार करके वह कोई खास कृपा कर रहा हो; क्योंकि वह अपने-आपको दुनिया में सबसे बड़ा बादशाह समझता है । इसी प्रकार से जब वह किसी बादशाह को कुछ लिखे, तो उसे भी अमीर या रेजीडेण्ट कहकर सम्बोधन करता है। यदि कोई आदमी स्थान या नौकरी प्राप्त करने की इच्छा से कोई भेंट उपस्थित करे, और फिर उसे वह जगह न मिले, जैसा कि कभी-कभी होता है, तो उसकी भेंट व्यर्थ ही जाती है । मुझे खूब याद है कि एक फ्रान्सीसी सौदागर मोशिये- पेशियन के साथ यही घटना हुई थी, जिसने इस आशा पर कि बादशाह इसके तमाम जवाहिरात खरीद लेगा-एक हज़ार रुपये कीमत का एक जमरुद भेंट किया था। पर जब बादशाह ने इनमें से एक भी न खरीदा, तो वह बहुत पछताया, और मुलताफ़खाँ से, जो इस समय शाही खिलवत- खाने का अफ़सर था, जाकर अनुनय-विनय करने लगा कि उसका जमरुद वह उसे वापिस दिला दे। इसमें सन्देह नहीं कि मुलताफ़खाँ की सिफ़ारिश से वह जमरुद उसे वापिस मिल गया, पर फिर भी उस पर उसका आधा मूल्य खर्च होगया; और यह भी बादशाह की उस पर विदेशी होने के कारण कृपा थी। भारतवर्ष में यह एक प्रथा-सी होगई है, कि वसीले और रुपया खर्च किये बिना कुछ नहीं मिल सकता। यहाँ तक कि जब शाहज़ादे भी कोई मतलब सिद्ध करना चाहें, तो बिना रुपया खर्च किये नहीं कर सकते । साल-गिरह या अन्य त्यौहार के अवसरों पर और खासकर नौ-रोज के जैसा कि मैं आगे मलकर बताऊँगा, बादशाह और शाहज़ादे अपने-आपको तौलते हैं, तमाम अमीरों की स्त्रियाँ बेगमों और शाहज़ादियों को मुबारिकबादी देने के लिये जाती हैं । यह भी, खाली हाथ नहीं-सदैव बहुमूल्य भेंट लेकर आतीं और इस त्यौहार की समाप्ति तक, जो बहुधा से नौ दिन तक रहता है-दरबार ही में रहती हैं । नाचने और गानेवालियाँ बधाई गा चुकती हैं, तो बेगमात सोने-चाँदी की बनी हुई किश्तियाँ प्रदान करती हैं। तमाम ज़नाने पहरेदारों को सिर से पैर तक वस्त्र और जवाह- , दिन-जब,
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