पृष्ठ:भारत में इस्लाम.djvu/२०१

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१६२ जब ये घुटने टेककर बैठते हैं, और अपनी बन्दूक को लकड़ी की तिपाइयों पर रखकर, जो बन्दूक के साथ लटकती है-चलाते हैं, तो उनकी यह बैठक देखने ही योग्य होती है, और इतनी सावधानी करने पर भी यह डर लगा रहता है, कि कहीं बन्दूक दाग़नेवाले की लम्बी दाढ़ी और आँखें न जल जाँय, अथवा किसी भूत-प्रेत के विध्न से कहीं बन्दूक फट न जाय ! पैदल सैनिकों में किसी का वेतन २०) रु० मासिक है, किसी का १५) रु० और किसी का १०) रु० । परन्तु गोलन्दाज़ों का वेतन बहुत है, विशेषकर विदेशी गोलन्दाज़ों का; अर्थात्-पुर्तगीजों, डचों, अंग्रेजों, जर्मनों और फ्रान्सीसियों का, जो गोआ और डचों तथा अंग्रेजों की कम्पनी के कार्यालयों से भाग आते हैं। प्रारम्भ में जब मुग़ल-लोग तोप चलाना अच्छी तरह नहीं जानते थे, इन विदेशी गोलन्दाज़ों को अधिक वेतन मिलता था, और उसमें से अब भी कुछ लोग हैं, जो २००) ० मासिक तक पाते हैं । परन्तु अब बादशाह इन लोगों को बहुत कम नौकर रखता है, और २० रु० से अधिक वेतन नहीं देता। तोपखाना दो प्रकार का है-एक भारी, दूसरा हल्का । भारी तोप- खाने के विषय में मुझे स्मरण है कि जब बादशाह बीमारी के बाद सेना- सहित लाहौर के मार्ग से काश्मीर गया था जिसको भारतवर्ष में द्वितीय स्वर्ग कहते हैं, तो उस यात्रा में जम्बूरकों अर्थात् ऊँटों पर एक प्रकार की बहुत छोटी-छोटी तोपें रखनेवालों के अतिरिक्त, जो दो-तीन सौ तेज ऊँटों पर थे, सत्तर भारी तोपें, जिनमें प्रायः विरजी तोपें थीं (ये छोटी तोपें दो-दो बन्दूकों के बराबर थीं) साथ थीं। भारी तोपखाना बादशाह के साथ नहीं रहता था; क्योंकि आखेट करने या पानी के निकट रहने के अभिप्राय से बादशाह सीधे मार्ग से अलग होकर चलता था, और ये तोपें ऐसी भारी थीं कि दुर्गम मार्गों, नावों या पुलों पर से, जो शाही सेना के उतरने के लिने बनाये गये थे-जा नहीं सकती थी। परन्तु हल्का तोपखाना सदैव बादशाह के साथ रहता था। आखेट के स्थानों में, जो बादशाह के लिये ठीक किये हुए रहते हैं, और जानवरों को राकने के लिये, जिनकी नाके-बन्दी आखेट के समय की जाती है, जब बादशाह बन्दूक से अथवा और किसी प्रकार से आखेट करना चाहता