पृष्ठ:भारत में इस्लाम.djvu/२२४

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२१५ ने इसके बदले बादशाह को छब्बीस लाख रुपये पेन्शन देने का वचन दिया। मुशिदाबाद के नवाबों का केवल शासनाधिकार मात्र रह गया। परन्तु इसके कुछ दिन बाद ही ज्योंही बादशाह दिल्ली आये, उधर वारेन हेटिंग्स गवर्नर हुए। उन्होंने पचास लाख रुपये नक़द लेकर अवध के नवाब को फिर इलाहाबाद और कड़ा का इलाक़ा बेच दिया । साथ-ही बाद- शाह को खिराज भेजना बन्द कर दिया। उसका कारण यह बतला दिया कि बादशाह मराठों से मिल गया है। बादशाह ने कई बार गवर्नर को पत्र लिखा। एक बार पत्र के उत्तर में वारेन ने लिखा था- "जब आप कम्पनी और अवध के नवाब-वजीर से अलहदा होकर दूसरों को (मराठों को) अपना कृपा-पात्र बनाने लगे, जिसमें कम्पनी की सरासर हानि है, तो जो-कुछ आपके पास था, उसी समय कम्पनी का हो चुका।" परकैच बादशाह ने फिर भी ठण्डे-ठण्डे लिखा- "कम्पनी के अधिकारी सुलहनामे की रू से आप हमारे पाक दामन से अलहदा नहीं हो सकते, और बंगाल के सूबे का खिराज भेजना उनका फर्ज है । हम कहीं क्यों न रहें; कड़ा और इलाहाबाद हमारे नौकरों के हाथों में बने रहने चाहिये। दो वर्षों से हमें इलाहाबाद और कड़ा के रुपये नहीं मिले । रुपयों की हमें अजहद जरूरत है।" परन्तु इस पत्र का कोई जवाब नहीं दिया गया। विवश, बादशाह ने फिर मराठों की शरण ली। उन्होंने महादजी सिन्धिया को लिखा कि तुम खुद कलकत्ता जाकर यह खिराज वसूल करो । नाना फड़नवीस से भी सहा- यता माँग गई। सिन्धिया पूना पहुँचकर नाना से इस सम्बन्ध में सलाह कर ही रहे थे, और सम्भव था कि भारी सैन्य लेकर कलकत्त खिराज के लिये चढ़ दौड़ते, पर, अकस्मात्-ही उनकी मृत्यु हो गई । कहा जाता है कि उन्हें मरवा डाला गया। इस व्यक्ति की प्रशसा में एक बादशाह ने कहा था- "माधोजी सोंधिया फ़र्ज़न्द जिगर बन्देमन् । हस्त मसरूफ तलाफ़ीए सितमगरि एमा॥"