पृष्ठ:भारत में इस्लाम.djvu/२२५

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२१६ अर्थात्-माधोजी सिंधिया मेरे जिगर का टुकड़ा और मेरा बेटा है। मेरे दुःखों को दूर करने में लगा हुआ है। इसके बाद अंग्रेज़ों ने मराठों और बादशाह में विरोध उत्पन्न करा दिया और एक इकरारनामा लिख दिया, जिसका अभिप्राय यह था कि उन्हें मराठों से सम्पूर्ण अधिकार दिला दिये जायेंगे। परन्तु यह वादा कभी पूरा नहीं किया गया । लार्ड लेक ने दिल्ली के समस्त अधिकार अपने कब्जे में कर लिये और बारह लाख रुपये बादशाह की पेन्शन नियत करदी। अब बादशाह के हाथ में कुछ भी अधिकार न थे। वह सिर्फ पेन्शन-भोगी नाम-मात्र का बादशाह था। दिल्ली पर क़ब्जा रखने और बादशाह को कब्जे में रखने के लिये, दिल्ली में एक मजबूत सेना रखने की व्यवस्था की गई । एक बार बादशाह को दिल्ली से हटाकर मुगेर भेजने का विचार किया गया, परन्तु विद्रोह के भय से यह विचार काम में न लाया गया। शाहआलम के बाद बादशाह अकबरशाह (दूसरा) गद्दी पर बैठा। इसके समय में ही लखनऊ के नवाबों को बादशाह की उपाधि प्राप्त हुई और अंग्रेजों ने उन्हें बादशाह स्वीकार किया। अब तक अंग्रेज अधिकारी दिल्ली के बादशाह को भारत का बाद- शाह मानते तथा कम्पनी-सरकार का न्यायाधिराज स्वीकार करते थे। उनके साथ बातचीत करने, मिलने और पत्र-व्यवहार में, सभी अफ़सर प्राचीन-मर्यादा का पालन करते थे, तथा प्रत्येक गवर्नर-जनरल दिल्ली आकर उनसे मिलता था। परन्तु जब वारेन हेस्टिग्स गवर्नर हुए, तब बादशाह अकबरशाह ने हेस्टिग्स को दिल्ली बुलाना चाहा । परन्तु हेस्टिंग्स ने साफ इन्कार कर दिया, और यह कहा कि मुझे इस नियम को स्वीकार करने में ऐतराज़ है कि दिल्ली के बादशाह कम्पनी की सरकार के अधिराज जब लॉर्ड एमहर्ट गवर्नर बनकर आये, तब दिल्ली आकर बादशाह से मिले। इन्होंने यह प्रथम ही तय कर लिया था कि इस मुलाक़ात में १. गवर्नर की मुहर पर 'दिल्ली के बादशाह का फ़िदवी-खास' खुदा रहता था।