पृष्ठ:भारत में इस्लाम.djvu/२३१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

२२२ रहें तथा उनका रुतबा और शान बढ़े। जहाँ तक मुमकिन हो सकता है, सब को चाहिये कि इस ऐलान की नक़ल करके किसी आम जगह पर लगायें।" जब दिल्ली में युद्ध छिड़ा, मिरजा मुग़ल सेनापति थे। पर वे सुप्रबन्धक और सुशासक न थे। न कोई सेनापति ही उस समय योग्य था। बादशाह ने उनकी जगह बख्तखाँ को प्रधान सेनापति बनाया। वह वीर और साहसी था। इसके साथ चौदह हजार पैदल, तीन हजार सवार, और अनेक तोपें थीं। सेना को उसने छः महीने का वेतन पेशगी बाँट दिया था, और चार लाख रुपया बादशाह को नजर किया था। उसने नगर में घोषणा करदी थी, कि कोई शस्त्र रहित न रहे । जिसके पास शस्त्र न थे, उन्हें मुफ्त हथियार बाँट दिये गये । यह प्रबन्ध कर, तीन जुलाई को आम-परेड हुई। इसमें बीस हजार सिपाही सम्मिलित थे। चार जुलाई को बख्तखाँ ने अंग्रेजी सेना पर आक्रमण किया। छोटे- बड़े घमासान यद्ध हुए। जयपुर, जोधपुर, सिन्धिया और होलकर अभी- तक आगा-पीछा कर रहे थे। फिर भी बादशाह के पास पचास हजार सेना थी। परन्तु सेनानायक का अभाव था । बख्तखाँ वीर और साहसी था। पर कुल-वंश का उच्च न था, और कुलीन राजे उसकी आधीनता में युद्ध करना अपना अपमान समझते थे। बादशाह ने जोश में आकर एक खत राजपूत-राजाओं को अपने हाथों से लिखा- "मेरी यह दिली ख्वाहिश है कि जिस जरिये और जिस क़ीमत पर भी हो सके, फिरङ्गियों को हिन्दुस्तान से बाहर निकाल दिया जाय । मेरी यह जबर्दस्त ख्वाहिश है कि तमाम हिन्दुस्तान आजाद हो जाय । इस मक़- सद को पूरा करने के लिये जो लड़ाई शुरू की गई है, उसमें उस वक्त तक फ़तहयाबी नहीं हो सकती, जब तक कोई शख्श अपने ऊपर ऐसी जिम्मे- वारी न ले ले, जो क़ौम की मुख्तलिफ़ ताक़तों को संगठित करके एक ओर लगा सके, और अपने को तमाम क़ौम का नुमाइन्दा कह सके । अंग्रेजों को हिन्दुस्तान से निकाल देने के बाद अपने ज़ाती फायदे के लिये हिन्दुस्तान पर हुकूमत करने की मुझे जरा भी ख्वाहिश नहीं है। अगर आप सब देशो