२२३ राजे दुश्मन को निकालने की ग़रज से अपनी तलवार खींचने के लिये तैयार हों, तो मैं इस बात के लिये राजी हूँ कि अपने तमाम शाही हक़्क़ और अख्त्यारात राजाओं के ऐसे गिरोह के हाथ सौंप दूँ-जो इस काम के लिये चुने जायँ ।" पचीस अगस्त तक युद्ध होता रहा। इसके बाद विद्रोही सेना में द्वेष-भाव उत्पन्न हो गया। अब साहस करके अंग्रेजी सेना नगर की ओर बढ़ने लगी। इस समय अंग्रेजी सेना में पाँच हजार सिख, गोरखे और पंजाबी तथा ढाई हजार कश्मीरी और स्वयं महाराज जींद अपनी सेना- सहित थे । दोनों ओर भयानक मार-काट होती गई । अन्त में १४ सितम्बर को अंग्रेजी सेना दिल्ली में घुस आई। इसी दिन सेनापति निकलसन घायल हुआ और २३ सितम्बर को हस्पताल में मरा । इधर अव्यवस्था बढ़ गई थी। कुछ सेना दिल्ली छोड़कर चल दी। अन्त में १६ सितम्बर तक अधिकांश नगर अँग्रेज़ी अधिकार में आ गया। तब बादशाह किला छोड़- कर हुमायूँ के मकबरे में चले गये । बख्तखाँ मक़बरे की दाहिनी ओर फ़ौज लिये पड़े थे। उन्होंने बादशाह से कहा-"अभी आप हिम्मत न हारिये । मेरे साथ दिल्ली से निकल चलिये । हम, पूरी तैयारियों से फिर युद्ध करेंगे।" पर मिरजा इलाहीबख्श, जो अँगरेजों के एजेण्ट थे, बादशाह को भागने की सलाह न देते थे। अन्त में बादशाह ने बख्तखाँ से कहा- "बहादुर, मुझे तेरी बात का यक़ीन है, और तेरी राय भी दिल से पसन्द करता हूँ, मगर जिस्म की कुव्वत ने जवाब दे दिया है। इसलिये मैं मामला तक़दीर के हवाले करता हूँ। मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो, और बिसमिल्लाह करो। यहाँ से जाओ और कुछ काम करके दिखाओ ! मैं नहीं, मेरे खानदान में से नहीं, तुम या कोई हिन्दुस्तान की लाज रखे, हमारी फ़िक्र न करो, अपने फ़ज़ को अदा करो।" बादशाह के इस जवाब से बख्तखाँ हताश हो गया। वह गर्दन नीची करके मक़बरे के पूर्वी दरवाजे से निकल आया। उधर इलाहीबख्श ने पश्चिमी दरवाजे से निकलकर कप्तान हडसन को सूचना दी कि बादशाह को गिरफ्तार करने का यही समय है। उसने तुरन्त ५० सवार लेकर, पश्चिमी दरवाजे पर पहुँच बादशाह को गिरफ्तार कर लिया। -
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