१७ 1 रुहेलों का अन्त अवध के उत्तर और गंगा के पूर्व हिमालय की तराई में जो हरा- भरा सुहावना प्रदेश है, वही रुहेलखण्ड है । दिल्ली के बादशाह मुहम्मदशाह रँगीले के जमाने में यहाँ का सूबेदार नवाब अली मुहम्मद था । सन् १७४८ में जब वह मरा, तो उसके आधीन एक लाख सेना अफ़गानों और पठानों की थी। खजाने में तीन करोड़ चालीस लाख रुपये और एक करोड़ सोलह लाख सोने की मोहरें थीं। अवध के नवाब बहुत दिनों से रुहेलखण्ड को हथियाना चाहते थे, मगर जब कभी सब रुहेल-सर्दार मिलकर युद्ध का डङ्का बजाते थे, तब उनकी संख्या अस्सी हजार पहुँचती थी। इसके सिवा वे वीर भी थे, अतः नवाब को उन्हें छेड़ने का साहस न होता था। अब उसने अंग्रेजों की धन-लिप्सा को देखा तो उसने गवर्नर वारेन हेस्टिग्स को लिखकर इस काम में मदद माँगी। दोनों ने सलाह करली, और चालीस लाख रुपये और सेना का कुल खर्च लेना स्वीकार करके अंग्रेजों ने भाड़े पर अपनी सेना देना स्वीकार कर लिया। रुहेलों से अंग्रेजों का कोई मतलब न था, न कुछ टण्टा था, इसके सिवा वे अन्य सूबेदारों की तरह बादशाह के अधिकार प्राप्त सूबेदार थे। ऐसी दशा में केवल रुपये के लालच से भाड़े पर सेना भेजना सर्वथा अनु- चित काम था। इस विषय पर मेकाले ने लिखा भी था :- "धन लेकर और भडैतू बनाकर पामर अथवा हानिकारक काम में २३८
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