पृष्ठ:भारत में इस्लाम.djvu/२७६

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२६७. वर्ष से लड़कर भी रक्त-पिपासा को शान्त न कर सकी, वह किस प्रकार प्रतिज्ञा-पालन करेगी? नवाब ने समझा था, बनिये हैं, चलो टुकड़े दे दिला- कर ठण्डा करें-ताकि रोज का झगड़ा मिटे । परन्तु सन्धि को एक सप्ताह भी न हुआ था, कि अँगरेज फ्रान्सीसियों को सदा के लिये निकाल देने की तैयारी करने लगे। उन्होंने इस पर नवाब का भी मन लिया। सुनकर नवाब को बड़ा क्रोध आया, और उसने साफ़ जवाब दे दिया कि अंगरेज़ों की तरह फ्रान्सीसी भी मेरी प्रजा हैं, मैं कदापि अपने आश्रितों पर तुम्हारा कोई अत्याचार न होने दूंगा । क्या यही तुम्हारी शान्ति-प्रियता है ? अंगरेज़ चुप हो गये । नवाब ने कलकत्त से प्रस्थान किया। पर मार्ग में ही उसे समाचार मिला कि अंगरेज़ चन्दननगर लूटने की तैयारियां कर रहे हैं। नवाब ने वाट्सन साहब को लिख भेजा। "सारे झगड़ों को शान्त करने ही के लिए मैंने तुम्हें सब अधिकार तुम्हारी इच्छा के अनुसार दिये हैं।.... परन्तु मेरे राज्य में तुम फिर क्यों कलह-सृष्टि कर रहे हो? तैमूरलंग के समय से अब तक कभी यूरो- पियन यहाँ परस्पर नहीं लड़े।......" अभी उस दिन सन्धि हुई-और अब तुम फिर युद्ध ठान देना चाहते हो? मराठे लुटेरे थे, पर उन्होंने भी सन्धि नहीं तोड़ी। तुमने सन्धि की है। इसका पालन तुम्हें करना होगा। खबरदार, मेरे राज्य में लड़ाई-झगड़ा न मचे। मैंने जो-जो प्रतिज्ञाएँ की हैं-उनका पालन करूंगा।" पत्र लिखकर ही नवाब शान्त न हुआ। उसने प्रजा की रक्षा के लिये महाराजा नन्दकुमार की अधीनता में हुगली, अमरद्वीप और पलासी की सेनायें नियुक्त करदीं। मुर्शिदाबाद पहुँचकर नवाब ने सुना कि अंगरेज़ों ने चन्दननगर पर आक्रमण करना निश्चय ही कर लिया है। उसने फिर एक फटकार का खत लिखती बार लिखा कि-"बाइबिल की कसम और ख्रीष्ट की दुहाई ले-लेकर भी सन्धि का पालन न करना-शर्म की बात है।" अब की बार अंगरेज़ों ने जो जवाब लिखा, उसका सार इस प्रकार था-"आप फ्रान्सीसियों के साथ युद्ध से सहमत नहीं हैं—यह मालूम हुआ।