२८२ यह था कि कहीं नवाब सैन्य को तो पुष्ट नहीं कर रहा है ? राज्य-रक्षा की तरफ तो उसका ध्यान नहीं है ? इन सबके सिवा जाफर ने नकद रुपया न होने पर सन्धि के अनु- सार अंगरेज़ों को कुछ जागीरें दी थी। उनकी मालगुजारी वसूली का भी उसी पर भार था। साथ ही, फ्रांसीसियों की छूत से नवाब को सर्वदा बचना भी आवश्यक था। हेस्टिग्स ने बड़ी मुठमर्दी से उक्त पद के योग्य अपनी योग्यता प्रमाणित की। पर मीरजाफर देर तक नवाब न रह सका। लोगों से वह घमण्ड- पूर्ण व्यवहार और झगड़े करने लगा। मुसलमान-हिन्दू, सब उससे घृणा करते थे। उधर अंगरेजों ने रुपये के लिए दस्तक भेज-भेजकर उसका नाकों- दम कर दिया। मीरजाफर को प्रतिक्षण अपनी हत्या का भय बना रहता था। निदान, तीन ही वर्ष के भीतर मीरजाफर का जी नवाबी से ऊब गया, और अन्त में अँगरेजों ने उसे अयोग्य कहकर गद्दी से उतार, कलकत्त में नज़रबन्द कर दिया। उसका दामाद मीरक़ासिम बंगाल का नवाब बना। जाफर की पेन्शन नियत की गई। एक प्रश्न उठता है कि मीरक़ासिम क्यों गद्दी पर बैठाया गया ? अधिकार तो मीरन का था-जो जाफर का पुत्र था। पर वहाँ अधिकार की बात ही न थी। वहाँ तो गद्दी नीलाम की गई थी। अंगरेज बनियों की पैसे की प्यास भयङ्कर थी। कासिम ने उसे बुझाया। क़ासिम को जिस भाव नवाबी मिली थी, उसका दिग्दर्शन हंटर साहब ने अपने इतिहास में लिखा है- "अंगरेजों का अमित धन की माँगों को पूरा कर के लिए नवाबी खज़ाने में रुपया नहीं था। इसलिये उन्हें अपनी पहले की शर्तों की रक़म में से आधा ही लेकर सन्तोष करना पड़ा। इस रकम की भी एक- तिहाई रकम नवाब के सोने-चांदी के बर्तन बेचकर संग्रह की गई, और इस भुगतान के बाद नवाबी खजाने में फूटी कौड़ी भी न बची थी।" क़ासिम के नवाब होने पर हेस्टिग्स कौंसिल का मेम्बर होकर कल- कत्त आगया, और उसकी जगह पर एलिस साहब एजेण्ट बने। इनके विषय में कप्तान ट्रॉवर लिखते हैं-“एलिस साहब कलह-प्रिय एवं बहुत
पृष्ठ:भारत में इस्लाम.djvu/२९१
दिखावट