२८३ ही बुरे आदमी थे, और वे जिस पद पर नियुक्त किये गये थे, उसके योग्य न थे।" नवाब और एजेण्ट की न बनी। बात-बात पर दोनों में झंझट चलने लगी। आखिर तंग आकर नवाब ने कलकत्त की कौंसिल को लिखा- "अंगरेज गुमाश्ते हमारे अधिकार की अवमानना करके प्रत्येक नगर और देहात में पट्ठ दारी, फ़ौजदारी, माल और दीवानी अदालतों की जरा भी परवा नहीं करते, बल्कि सरकारी अहलकारों के काम में बाधा डालते हैं ! ये लोग प्राइवेट व्यापार पर भी महसूल नहीं देते, और जिनके पास कम्पनी का पास है, वे तो अपने को कर्ता-धर्ता ही समझते हैं। सरकारी और अंगरेज कर्मचारियों की परस्पर की अनबन का कड़ आ फल प्रजा को चखना पड़ रहा है, और उस पर असह्य निष्ठुर अत्याचार हो रहे हैं। मैकॉले साहब उस समय के अंगरेज़ों का चित्र खींचते हुए लिखते हैं- "उस समय के कम्पनी से कर्मचारियों का केवल यही काम था,, कि किसी देशी से सौ-दो-सौ पाउण्ड वसूल करके जितना शीघ्र हो सके, यहाँ की गर्मी से पीड़ित होने के पूर्व ही विलायत लौट जायें, और वह किसी कुलीन धनी की कन्या के साथ विवाह कर, कॉर्नवाल में छोटे-मोटे एक दो गाँव खरीदकर और सेण्ट-जेम्स-स्क्वेयर में आनन्दपूर्वक मुजरा देखा करें।" हेस्टिग्स साहब जब एक बार पटने गये, तो क्या देखते हैं-नगर रो रहा है । एक ओर पाश्चात्य सभ्यता का दया-हीन झण्डा फहरा रहा है, दूसरी ओर सैकड़ों वर्ष से विदेशियों के अत्याचारों को सहते-सहते प्रजा उस भेड़ के समान हो गई है, जिसका ऊन मूड़ने के बहाने लोग उसका चमड़ा तक उधेड़ रहे हैं । नगर शून्य था। दूकानें बन्द थी । प्रत्येक को लूट का भय था । लोग इधर-उधर भाग रहे थे। मीरक़ासिम अपने श्वसुर की तरह नीच, स्वार्थी तथा द्रोही न था। वह सब रंग-ढंग देख चुका था। उसने नवाबी मोल ली थी, फिर भी वह नवाब ही बनना चाहता था, और अंगरेज़ों से प्रजा की तरह व्यवहार 1 ,
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