३०६ हठों के साथ थे । अन्यत्र मुसलमान-शासक जहाँ हिन्दू राजाओं से लड़ते थे -वहाँ, यह युद्ध हिन्दू-मुसलमानों में होता था। पर, मुसलमान शासक मुसलमान राजाओं से भी उसी भाँति लड़ते थे। उधर हिन्दू राजपूत राजा स्वयं भी आपस में खूब लड़ते थे। वह समय ही मानो योद्धाओं का था, और योद्धाओं की दो श्रेणियाँ थीं-एक हिन्दू, जो अधिक थे-पर संगठित न थे ; दूसरी मुसलमान, जो कम थे-पर संगठित थे। जहाँगीर और शाहजहाँ मानो मुस्लिम-साम्राज्य में एक शान्त, स्थिर और कला-कौशल को उन्नत करनेवाले बादशाह थे। अलबत्ता एक बात तो थी ही ; वह यह कि पठानों के राज्य-काल में बादशाह अपनी प्रजा में जितने सहनशील थे, उतने पराये राज्य के हिन्दुओं के लिये नहीं। मलिक काफूर का दक्षिण-विध्वंस ऐसा ही है;- यद्यपि उस सेना में हिन्दू-योद्धा भी थे । सच्ची बात तो यह है कि मन्दिर-विध्वंस केवल धन-लिप्सा के लिये था-बुतशिकनी का बहाना तो एक मीठा छल था ! मध्य-युग के मुसलमान बादशाहों का अपने राज्य के बाहर के हिन्दुओं पर आक्रमण करना और नगरों का लूटना एक आमदनी का ज़रिया था। भारत में अति प्राचीन-काल के व्यवहार-शिल्प और अध्यवसाय से बहुत धन एकत्र होगया था, अगणित जवाहरात एकत्र होगये थे, और ब्राह्मणों के दुर्घर्ष प्रभाव से खिचकर धर्म-मन्दिरों में सञ्चित हो गये थे, जो उस काल में एक-मात्र धर्म-स्थान थे। यही कारण है कि आक्रमणकारियों की दृष्टि मन्दिरों के धन-कोष पर ही रहती थी। यह बात तो हमें माननी पड़ेगी कि मुस्लिम-साम्राज्य का वास्तविक प्रारम्भ अलाउद्दीन की क्रूर और प्रचण्ड नीति से हुआ। गुलाम-वंश के सुलतान तो थोथे मुसलमान थे। उसके बाद ही मुस्लिम-जाति भारत में एक संगठित जाति के समान बनती चली गई । यह एक नैतिक पुष्टि थी- जो अलाउद्दीन से अकबर तक स्थित होती चली आई, और इसी ने उनके साम्राज्य को स्थिर बनाया ! मुसलमानों से प्रथम यूनानियों, शकों और हूणों ने भारत पर बड़े- बड़े धावे किये । पर उससे न भारत की राजनीति पर प्रभाव पड़ा-न, समाज-शृखला में ही गड़बड़ी हुई। सामरिक प्रभाव भी इनको सीमा- 1
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