२७: भारतवर्ष की देशीय एकता अधिक विदेशी विद्वान् भारतवर्ष को एक महाद्वीप मान बैठे हैं, जो कई देशों का समूह है। भारतवर्ष में एक-देशीय भौगोलिकता में सन्देह करने का कारण उसका इतना बड़ा विस्तार ही है। भारत का विस्तार उत्तर से दक्षिण तक २००० मील से अधिक और पश्चिम से पूर्व कोई १६०० मील के लगभग है। पृथ्वी के इतने बड़े टुकड़े को सहसा एक देश मानने को बुद्धि तैयार नहीं होती। भारत का क्ष त्रफल सारे योरोप के क्षेत्रफल के तिहाई के बराबर है। हमारा भारत ग्रेट-ब्रिटेन से १४ गुना और फ्रांस या जर्मनी से ६ गुना बड़ा है । (यह पुस्तक के लेखन काल का विवरण है।) इसी विस्तार के कारण लोग भारतवर्ष को अनेक देशों का समूह मानते हैं । सतह भी इसकी सम नहीं;-कहीं गगन-भेदी पर्वत, कहीं समुद्र-तल और कहीं ऊँची-नीची भूमि। यही दशा जलवायु की भी है। कहीं शीत की अधिकता है, कहीं गर्मी की। जल वृष्टि का भी यही हाल है। यदि चेरा- पूजी में ४६० इञ्च वृष्टि हो, तो ऊपरी सिंध में पानी का कहीं नाम-निशान भी नहीं। धरातल में विषमता और जलवायु में समानता न होने से पशु- पक्षी भी भिन्न-भिन्न प्रकार के होते हैं। रंग-बिरंगे पक्षी, जैसे यहाँ देखने में आते हैं-वैसे, और देशों में बहुत कम दिखाई देते हैं। इन सब बातों का प्रभाव भारतवर्ष की बानस्पतिक उपज पर भी पड़ा है, जिसका फल यह मनुष्य के लिये जो पदार्थ आवश्यक हैं, वे सभी यहाँ होते हैं। सबसे बढ़कर भिन्नता भारतवर्ष के मनुष्यों में है । संसार की जन-संख्या का पाँचवाँ भाग भारत में पाया जाता है । इस जन-समुदाय में न जाने कितनी ३११ हुआ कि
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