३१२ भाषाए और न जाने कितनी रस्म-रिवाजें प्रचलित हैं । शरीर की आकृति के विचार से भी भारतवर्ष में सात प्रकार के मनुष्य रहते हैं। बोली की भिन्नता का तो कहना ही क्या है ! यदि मतों की तरफ दृष्टि डाली जाय, तो यही जान पड़ता है कि संसार-भर के मतों और धर्मों का वाज़ार भारत- वर्ष है। इस दशा में यदि किसी को भारतवर्ष की एक देशीयता में सन्देह हो, तो आश्चर्य ही क्या है। इतना होने पर भी मिस्टर यूसुफअली, ई० एगेट तथा बीसेण्ट ए० स्मिथ आदि इतिहासज्ञों का मत है कि भारतवर्ष एक ही देश है। प्राचीन विद्वानों ने भी भारतवर्ष को एक देश माना था। प्रथम तो 'भारतवर्ष' नाम ही से इस देश की एकता का अनुभव होता है। भारत में सिंधुनद होने के कारण ईरानियों ने इसका नाम -'सिंधुस्थान' या 'हिन्दुस्तान' रख लिया था। ग्रीस-निवासियों ने इण्डस (Indus) से इण्डिया बनाया । इन सब नामों में 'भारतवर्ष' नाम में एक खास महत्व है। जब कोई भिन्न-भिन्न वस्तुओं के समूह का एकत्र वर्गीकरण करता है, तब वह उन्हें भेद होने पर किसी एक प्रधान सूत्र से अवश्य बाँधता है। तत्कालीन विद्वानों ने भी सम्राट् 'भरत' के नाम पर 'भारतवर्ष' नाम रक्खा; जैसे रोमुलस (Romulas) राजा के नाम पर रोम का नाम निर्देश हुआ । यह वह समय था, जब किरात हूण, यवन आदि देशों पर भारत का अधिकार था । अब ऋग्वेद के एक मन्त्र को पढ़ियेगा- इमं मे गंगे-यमुने-सरस्वती- शुतुद्रि-स्तोम सचता परुष्ण्या। असि कन्या मरुद्धधेवित स्तयाजों कीये शृणुह्या सुषोमया।" क्या इस मन्त्र में भारतवर्ष-व्यापिनी नदियों का पाठ करने से समग्र भारतवर्ष का चित्र आँखों में व्याप्त नहीं हो जाता? क्या मातृ-भूमि की एक स्निग्ध विस्तृत मूर्ति मन में नहीं भासित होने लगती? ऋग्वेद के समय का भारत इतना ही भारत था, कि उत्तर में हिमालय पश्चिम में
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