पृष्ठ:भारत में इस्लाम.djvu/३३४

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३२५ उपयोग किया जाता था । साम्राज्य-भर में एक-समान वजन, एक-से मूल्य, एक-से नाम, और एक-सी धातु के सिक्के प्रचलित थे।" मुग़ल-बादशाहों की प्रारम्भिक भाषा ईरानी थी। पर उन्होंने शीघ्र ही उर्दू-ज़बान को जन्म दिया, और उसे ज़बाने-हिन्दबी कहा। यह भाषा खूब उन्नत हुई, और मुसलमानों की मातृ-भाषा बन गई। सिर्फ सरकारी काग़ज़ों में फ़ारसी का प्रयोग होता था । १८ वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में उर्दू साहित्य की दृष्टि से भी एक जबरदस्त भाषा बन गई। इस भाषा के अनेक प्रसिद्ध कवि हुए, जिनमें एक अन्तिम सम्राट् बहादुरशाह भी थे । उर्दू-भाषा की उत्पत्ति भी मुगलों के काल में हुई। यदि आप हल- वाई से मिठाइयाँ लें, तो गुलामजामुन, बालूशाही, हलुआ, कलाकन्द, नानखताई, बरफ़ी, आदि अधिकांश नाम उर्दू दीख पड़ेंगे। वास्तव में इनका आविष्कार भी मुग़ल-काल में हुआ था। उर्दू का अर्थ लश्कर है। बादशाही सेनाओं में, जहाँ अर्बी, तुर्क, ईरानी और हिन्दुस्तानी सिपाहियों की एक अजीव खिचड़ी पक रही थी- तब, उनके मुख से जो-जो अपनी भाषाएं निकलती थीं, वे सब भी परस्पर मिल-मिलाकर एक खिचड़ी -भाषा होगईं । इस भाषा का नाम उर्दू पड़ा। क्योंकि यह उर्दू (लश्कर) की भाषा थी। राजा टोडरमल ने इसे फारसी' लिपि में लिपि-बद्ध किया; क्योंकि वह लिपि मुसलमान बादशाह को प्रिय थी, और शाही भाषा की लिपि थी, साथ ही जल्दी और कम स्थान में लिखी जाती थी, और सब राज-कर्मचारी, जो मुसलमान थे-उससे परि- चित थे। परन्तु यह फ़ारसी-लिपि हिन्तोस्तानी भाषा को ठीक-ठीक व्यक्त करने में असमर्थ थी। क्योंकि उसमें १४ ध्वनियों का अभाव था, जैसे- भ, छ, थ, ध, झ, ख, ढ, ध, फ, घ, ढ़-आदि। इन ध्वनियों के लिए शब्द अरबी में न थे। पर जब ईरान में अरबी-लिपि आई, और ईरानियों ने उसे अपनी लिपि बनाया, तब उन्होंने बिन्दु चढ़ाकर चार नये संकेतों का काम चला दिया। उन्होंने अरबी के काम, जीभ, बे अक्षरों में दो-दो बिन्दियाँ और नून की टेढ़ी रेखा कर, एक और टेढ़ी रेखा बढ़ाकर गाफ, नून, चे चार अक्षरों की सृष्टि करली है । बे सेग्रेन तक ऐसे कई अक्षर हैं, जिनके भेद का ,