३४४ गुलाम होगये बल्कि अंगरेजी सभ्यता के भी। और ज्यों-ज्यों उनकी यह गुलामी सांस्कृतिक प्रभाव में आती गई यह नवयुवक हिन्दू और मुसलमान दोनों ही संस्कृतियों को सन्देह और घृणा की दृष्टि से देखने लगे। is ऐसे ही समय में मुसलमानों में सर सैयद अहमद और हिन्दुओं में राजा राममोहनराय और स्वामी दयानन्द ने आँख फाड़कर अपने युवकों की इस सांस्कृतिक अधोगति को देखा और उनकी रक्षा करने की तत्परता दिखाई। सर सैय्यद अहमद ने अलीगढ़ में मुस्लिम संस्कृति का एक केन्द्र स्थापित किया और उर्दू के माध्यम से नवीन मुस्लिम राष्ट्र का संगठन आरम्भ किया। राजा राममोहन राय और स्वामी दयानन्द ने ब्रह्मसमाज और आर्य-समाज की स्थापना करके हिन्दू नवयुवकों में जो नवचेतना का बीज बोया, उसे हिन्दुओं ने अपनाया तो, परन्तु सन्देह की दृष्टि से देखा। जो सहयोग सर सैयद को नये मुस्लिम राष्ट्र के संगठन में मिला वह सह- योग राजा राममोहन राय और स्वामी दयानन्द को नहीं मिला । फलतः जहाँ मुस्लिम राष्ट्र एकीभूत होकर समुन्नत होने लगा वहाँ हिन्दू-राष्ट्र में साम्प्रदायिकता की बू उत्पन्न होगई और उसकी बहुत-सी शक्ति आपस के संघर्ष में खर्च होने लगी। परन्तु, इसी समय में कांग्रेस के नाम से एक तीसरी संस्था विशुद्ध राजनैतिक भावनाओं से खड़ी होगई। एक प्रकार से यह भी एक हिन्दू संस्था थी। नाम मात्र के एक दो मुसलमान इसमें सम्मिलित हुए। यद्यपि इस संस्था में कोई दम न था और प्रारम्भ में यह फैशनेबुल पढ़े-लिखे लोगों का वार्षिक राजनैतिक मनोविनोद था। परन्तु धीरे-धीरे कुछ चुने हुए महावारणी पुरुष कांग्रेस में एकत्रित हुए और वह राजनैतिक चर्चा का प्रमुख विषय बनती गई। और साथ ही साथ उसमें हिन्दू और मुस्लिम दोनों ही विद्वान् अंगरेजी के माध्यम से अंगरेजी शासन और सभ्यता के विपरीत अपने भावों का प्रदर्शन करने लगे। चतुर अंगरेजों ने तुरन्त ही भांप लिया कि लार्ड मैकाले ने जिस भावना से अंगरेजी का माध्यम भारत में प्रचलित किया था वह अब दूसरे रूप में एक राष्ट्रीयता के रूप में उदय होता चला जा रहा है और अंगरेजों के लिये सबसे बड़ा खतरा बन रहा है। लार्ड कर्जन जो कि अपने युग के बड़े भारी राजनीतिज्ञ थे उन्होंने
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