सैकड़ों उत्तरदायित्व शून्य छोटी-छोटी रिसासतों, सैकड़ों मत-मतान्तरों और अनगनित सदाचारहीन कुरीतियों और अन्धविश्वासों का घर था।
पाठकों को स्मरण होगा कि ख़लीफ़ा अब्दुल मलिक के शासन काल तक मुस्लिम शक्तियों में गृहयुद्ध खूब जोर पर था और वह ख़लीफ़ा वलीद के काल तक भी जारी था। उस समय हज्जाज़ इब्ने यूसुफ कोफे का हाकिम था। उसके आधीन प्रदेशों के अल्लाफी जाति के कुछ विद्रोही मुसलमान हिन्दुस्तान में भाग आये थे और सिन्ध के राजा दाहिर की शरण में रहने लगे थे। इनका सरदार मुहम्मद वारिस अलाफी था। राजा ने उन्हें जागीर देकर अपनी सेना में रख लिया था। हज्जाज़ ने इन्हें मांगा पर दाहिर ने देने से इन्कार कर दिया। इसी बीच में अरब का एक जहाज लङ्का से आरहा था उसे कच्छ के लुटेरों ने लूट लिया। हज्जाज़ ने दाहिर से इसका हरजाना माँगा। दाहिर ने कहा---वह स्थान जहाँ जहाज लुटा है हमारे राज्य की सीमा से बाहर है अतः हम हरजाना नहीं देंगे।
इस पर हज्जाज़ ने सन् ७१२ ई० में मुहम्मद बिन क़ासिम को सिन्ध पर भेजा। यह हज्जाज़ का भतीजा था। २० वर्ष का साहसी मुसलमान बालक केवल छ हज़ार सैनिक लेकर बलोचिस्तान की विस्तृत मरुभूमि को पार करता हुआ बिना किसी रोक टोक के सिन्ध पर चढ़ आया। दाहर के सेनापतियों और नारायण कोट के किलेदार (जो अब हैदराबाद कहाता है) को लालच देकर शरणागत मुसलमानों के सरदार मुहम्मद वारिस अल्लाफी ने प्रथम ही वश में कर लिया था। समय पर वे स्वयं भी युद्ध में विपरीत होगये। राजा दस हजार सवार और बीस हजार पैदल ले कर सम्मुख गया। आठ दिन तक घोर युद्ध हुआ। क़ासिम भागने ही को था कि एक ब्राह्मण ने उससे कहा कि यदि मन्दिर का झण्डा गिरा दिया जाय तो हिन्दू सेना भाग जायगी---क्योंकि हिन्दुओं का यही विश्वास है। क़ासिम ने झण्डे पर निशान दाग कर गिरा दिया। उसके गिरते ही हिन्दू सेना भागने लगी। राजा दाहिर एक तीर से घायल होकर गिर गया और उसका सिर काट लिया गया जिसे भाले पर लगा कर दिखाया गया। उसे देख सेना भाग खड़ी हुई और मन्दिर ध्वंस कर दिया गया। उसी ब्राह्मण ने दक्षिणा पाने के लालच में एक गुप्त ख़जाने का पता क़ासिम को