दिया जिसमें से चालीस डेगें ताम्बे की मिलीं जिनमें सत्रह हजार दो सौ मन सोना भरा था जिसका मूल्य एक अरब बहत्तर करोड़ रु० होता था। इसके अतिरिक्त छ हजार मूर्तियाँ ठोस सोने की थीं। जिनमें सबसे बड़ी का वजन ३० मन था। हीरा, पन्ना, मोती, लाल और मानिक इतना था कि कई ऊँटों पर लादा गया।
जब यह ख़ज़ाना क़ासिम को मिल गया तब उसने ब्राह्मण को उसी दम क़त्ल करा दिया। साथ ही जिन सेनापतियों ने राजा से विश्वासघात किया था उन्हें भी क़त्ल करा दिया गया। इसके बाद उसने असंख्य मन्दिरों और मूर्तियों को विध्वंस किया, हजारों हिन्दू स्त्री-पुरुषों को क़त्ल किया और अनेक गाँव लूट लिये। वह प्रत्येक गाँव के द्वार पर जाता और वहाँ के निवासियों को मुसलमान होने तथा बहुत सामान देने का आदेश करता था। आज्ञा पालन में तनिक भी देर होने पर वह क़त्ल और लूट करा देता था।
यह धन ज़ज़िया कहाता था। अरब की शरह के मुताबिक क़ाफिरों में धनवान को बारह रुपये साल, मध्यम श्रेणी वाले को छ रुपये साल और मजदूरों को तीन रुपये साल देना पड़ता था। बाद में यह नियम हो गया कि जीवन निर्वाह होने पर जो धन काफ़िर के पास बचे वह सब छीन लिया जाय।
फरिश्ता लिखता है कि मृत्यु-तुल्य दण्ड देना ही ज़ज़िया का उद्देश्य था। काफिर लोग इस दण्ड को देकर मृत्यु से बच सकते थे। क़ासिम ने अत्यन्त कड़ाई से वह कर वसूल करना शुरू किया। और आपस की के कारण कितने ही हिन्दू राजाओं ने इस नवागत अत्याचारी का स्वागत किया।
जिस समय सिन्ध पर यह गुज़र रही थी, उस समय भी अरब के व्यापारी मालाबार तट पर अपनी बस्तियाँ बसा रहे थे। वे शान्त थे और हिन्दुस्तानी स्त्रियों से विवाह करते थे तथा उनके रहने और घर बनाने में कोई भी बाधा न थी। 'हिशाम' का कबीला भागकर भारत में कोकड़ा और कन्याकुमारी के पूर्वी तट पर बस गया था। लव्वे और नवायत जातियाँ उन्हीं के वंश की हैं। हिन्दू राजाओं ने इन विदेशी व्यापारियों की