लौट आया। इस विजय के उपलक्ष्य में जो उत्सव मनाया गया था उस समय लाखों हिन्दू कत्ल किये गये थे और शाही तम्बू के सामने खून की नदी बह निकली थी। परन्तु बाबर को दिल्ली के तख़्त पर बैठना नसीब न हुआ, वह शीघ्र ही मर गया। उसका पुत्र हुमायूँ भी जीवन भर युद्ध करता और इधर-उधर भागता फिरा।
इस बीच में एक बार पठान राजा शेरशाह और उसके एक हिन्दू सरदार हेमू ने दिल्ली पर अधिकार कर लिया---हुमायूँ काबुल को भाग गया--पर यह चिरस्थाई न रहा। परस्पर की फूट और द्वेष ने सबका नाश किया। कुप्रबन्ध ने सुव्यवस्था न होने दी और सैनिक शासन ने सुप्रबन्ध न होने दिया। इस बादशाह ने बहुत सरायें बनवाईं, जिनमें एक विवाहित गुलाम रखा जाता था, जिसका यह काम था कि मुसाफिरों के लिए भोजन बनावे, पीने को ठण्डा पानी और नहाने को गर्म पानी का प्रबन्ध रखे। सराय में प्रत्येक मुसाफिर के लिये एक एक चारपाई चादर सहित मिलती थी। इन सबका ख़र्च सरकारी खजाने से मिलता था। बहुत-सी सरायैं सेठों और साहूकारों ने बनवाई थीं, जिनमें बाग, तालाब और आराम की बहुत सी चीजें थीं।
इसी बादशाह के राज्य में तोल नियुक्त की गई। बाट बनाये गये। गज नियत किये गये और सिक्के ढाले गये। इससे पहले प्रायः कपड़ा बालिश्तों से तथा जिन्स नजर से अन्दाज करके बिकती थी। यद्यपि यह प्रजाहित करने की चेष्टाएँ करता था पर एक बार इसने चित्तौर के राणा संग्रामसिंह पर धावा बोल दिया और भारी हार खा अन्तिम दिनों वह बंगाल में रहा और उधर ही मरा।
उसके मरने पर देश भर में क्रान्ति मच गई। उस समय एक फ़कीर शाहदोस्त रहते थे---उन्होंने अपने एक चेले को हुमायूँ के पास एक जूता और एक चाबुक लेकर भेजा। हुमायूँ ने फ़कीर का मतलब समझ लिया और उसने फिर से भारत पर चढ़ाई की तैयारियाँ कीं। शाह फारिस से उसने सहायता माँगी। हुमायूँ ईरान, काबुल घूम फिर कर पन्द्रह हज़ार सेना इकट्ठी करके फिर भारत में आया और दिल्ली व आगरे पर कब्जा कर लिया। परन्तु इसके छः मास बाद मर गया।