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पृष्ठ:भारत में इस्लाम.djvu/९१

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उस समय अकबर सिर्फ तेरह वर्ष का था, और राज्य की परिस्थिति अनिश्चित थी। दिल्ली और आगरे को छोड़ कर उसके पास और कुछ न था। फिर सिकन्दरसूर और हेमू उसके विरुद्ध तैयार हो रहे थे। बाबर अपने मित्र बैरम खाँ के हाथ में अकबर को सौंपा। बैरमखाँ एक वीर सेनापति और उच्च वंश का तुर्क था। अकबर ने उसे प्रधान मन्त्री और संरक्षक बनाया। बैरमखाँ ने पानीपत के मैदान में सिकन्दर और हेमू की संयुक्त सेना को पराजित किया। हेमू कत्ल कर दिया गया और सिकन्दर को पंजाब में पराजय कर क्षमा दान दे बङ्गाल जाने दिया। दो वर्ष बाद अकबर ने स्वाधीन होकर राज्य सम्भाला और बैरमखाँ को मक्का भेज दिया, पर वह मार्ग ही में मार डाला गया।

उस समय अकबर की शक्ति डाँवाँडोल थी। पंजाब, ग्वालियर, अजमेर, दिल्ली और आगरा तो उसके आधीन हो गये थे, पर बङ्गाल में अफगानों की अभी शक्ति थी। उसकी फौज में भी जो सिपाही थे अधिकांश तुर्की लुटेरे थे जो लूट मार के लालच से ही सेना में भरती हुए थे। और जो सेनापति थे---वे अपने-अपने अधिकारों को बढ़ाने की चिन्ता में ही रहते थे। जो सरदार जिस प्रान्त में शासक बना कर भेजा गया वह वहाँ का सालम हाकिम बन बैठा। पर अकबर बड़ा मुस्तैद सिपाही था। वह रात दिन कूच करके उनके सावधान होने से प्रथम ही उन्हें धर दबाता। इस प्रकार सात वर्ष इसे अपने अनुयाइयों के दबाने में लगे। अन्त में काबुल के शासक ने पंजाब पर धावा किया जो उसका भाई था, परन्तु वह हरा कर भगा दिया गया।

अब आन्तरिक विवादों को मिटा कर वह राजपूतों को दबाने के लिये झपटा। उसकी नीति पूर्ववर्ती मुसलमान शासकों से भिन्न थी। वह सिर्फ यही चाहता था कि राजे अपने राज्य पर बने रहें केवल उसकी आधीनता स्वीकार करलें।

आमेर का राजा उसका मित्र बन गया और अपनी पुत्री अकबर को दी। अकबर ने उसके पुत्र को प्रधान सेनापति बना दिया। जोधपुर और अन्य राजपूत शक्तियाँ थोड़ा विरोध करके उसके आधीन हो गईं। ये सब लोग उसके सहायक और मित्र बन गये और अकबर ने इन हिन्दू राजवंशों