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भाव-विलास

 

४—धृष्ट
दोहा

दोष भरो प्रत्यक्ष ही, सदा कर्मअपकृष्ट।
सहै मार गारी; रहै, निलज पाँइ परिधृष्ट॥

शब्दार्थ—अपकृष्ट–निन्दनीय, बुरे।

भावार्थ—दोषी, लज्जाहीन, अपमानित होने तथा भर्त्सना गालियाँ आदि सह कर पैरों पड़ के खुशामद कर बार बार अपराध करने वाले नायक को धृष्ट कहते हैं।

उदाहरण
सवैया

द्वार तें दूरि करौं बहु बारनि, हारनि बाँधि मृनालनि मारो।
छाड़तु नाअपनो अपराधु, असाधु सुभाइ अगाधु निहारो॥
बैरिन मेरी हँसै सिगरी, जब पाँइ परै सु टरै नहिं टारो।
ऐसे अनीठ सों ईठ कहै यह ढीठ बसीठ नहीं को बिगारो॥

शब्दार्थ—बहु बारनि–अनेक बार। छाड़तु...अपराधु–अपना अपराध नहीं छोड़ता। सिगरी–सब। पाँइ परै–पैरों पड़ता है। टरै नहि टारौ–हटाये नहीं हटता। ढीठ–धृष्ट।

नर्म सचिव
दोहा

दूरि होइ जा बात मैं, मानवतिन को मान।
सोई सोई जौ कहे, पीठिमरद सु बखान॥