ऐसी न होइ जू देह की दीपति, देव को दीप समीप देखैहो।
मोहन को मुख चूमि भटू तब, हौं अपनो मुख चूमन देहौ॥
शब्दार्थ—मेरेऊ–मेरे भी। परजङ्क–पलङ्ग। पाननि–पानी को। देह की दीपति–देह की ज्योति अर्थात् सुन्दरता।
४–विचित्रसुरता
सवैया
केलि करै रसपुञ्ज भरी, बन कुञ्जन प्यारे सों प्रीति की पैनी।
झिल्लिन सों झहनाइ के किंकिनि, बोले सुकी सुक सो सुखदैनी॥
यों बिछियान बजावति बाल, मराल के बालनि ज्यों मृगनैनी।
कोमल कुंज कपोत के पोत लों, कूँकि उठे पिक लो पिकबैनी॥
शब्दार्थ—प्रीति की पैनी–प्रम करने में चतुर। कपोत–कबूतर।
मध्या सुरत
सवैया
जागत ही सब जामिनि जाइ, जगाइ महा मदनज्वर पावक।
अँजन छूटि लगै अधरान मैं, लोइन लाल रंगे जनो जावक॥
कामिनि केलि के मन्दिर मैं, कविदेव करै रतिमान तरावक।
सङ्ग ही बोलि उठे तजि, कावक लाव कपोत कपोत के सावक॥
शब्दार्थ—जामिनि–रात। मदन ज्वर–काम ज्वर। अधरान–ओठ। लोइन–आँखे। जावकमहावर। कावक–कबूतरों के बैठने की छतरी। सावक–बच्चे।