मध्या सुरतान्त
सवैया
रँग रावटी तै उतरी परभात ही, भावती प्यारे के प्रेम पगी।
अलसाति जम्हाति सुदेव सुहाति, रदच्छद मै रद पाँति लगी॥
सब सौतिन की छतियाँ छिनही मैं, सुहागिन की दुति देखि दगी।
उतराती सी बैन तराती भई इतराती बधू इतराती जगी॥
शब्दार्थ—अलसाति–अलसाती हुई। जम्हाति–जम्हाई लेती हुई। रद–दाँत। दुति–सुन्दरता। इतराती–इतराती दुई।
प्रौढ़ा
दोहा
मति गति रति पति सो रँचै, रतपति सकल कलान।
कोविद अति मोहित महा, प्रौढ़ा ताहि बखान॥
लब्धापति रतिकोविदा, क्रान्तनाइका सोइ।
सविभ्रमा यह भाँति करि, प्रौढ़ा चौविधि होइ॥
शब्दार्थ—चौविधि–चार तरह की।
भावार्थ—अपने पति से परम प्रीति करनेवाली, सब काम कलाओं में प्रवीण नायिका को कविलोग प्रौढ़ा कहते हैं। इसके भी चार भेद हैं। १–लब्धापति २–रति कोविदा ३–आक्रान्तनायका ४–सविभ्रमा।
१–लब्धापति
सवैया
स्याम के संग सदा हम डोलें, जहाँ पिक बोले अलीगन गुंजै।
छाहन माँह उछाहनि सों, छहरें जहाँ बीरी पराग को पुंजै॥