लै-लै उसांसे लिखे धरनी धरि, ध्यान रहै करि दीठि अडोलनि॥
बैठि रहै कबहूँ चुप ह्वै, कविदेव कहे कर चापि कपोलनि।
बालम के बिछुरे यह बाल, सुने नहिं बोल न बोलति बोलनि॥
शब्दार्थ—नीर भरे मृग कैसे बड़े दृग—हिरन के समान आँसुओं से भरी बड़ी-बड़ी आँखे। लै लै उसांसे—बार बार श्वांस भरकर। दीठि अडोलनि—एकटक दृष्टि। कर चापि कपोलनि—हाथ पर गाल रखकर। सुने........बोलनि—न किसी की सुनती है और न स्वयं कुछ कहती है।
१२—धृति
दोहा
ज्ञान शक्ति उपजै जहाँ, मिटै अधीरज दोष।
ताही सों धृति कहत जहँ, जथा लाभ सन्तोष॥
शब्दार्थ—अधीरज—अधैर्य।
भावार्थ—जब सत्संगादि किसी कारण से अधैर्य मिटकर ज्ञान शक्ति उत्पन्न होती है और मन सन्तोष लाभ करता है तब उसे धृति कहते हैं।
उदाहरण
सवैया
रावरौ रूप रह्यो भरि नैननि, बैननि के रस सों श्रुति सानो।
गात में देखत गात तुम्हारे, ये बात तुम्हारीये बात बखानों॥
ऊधौ हहा हरि सों कहियो, तुम हौ न यहाँ यह हौं नहिं मानों।
यातन तें बिछुरे तु कहा, मनते अनतै जु बसौ तब जानों॥
शब्दार्थ—रावरौ—आपका। नैननि—आँखों में। श्रुति—कान।