पृष्ठ:भाव-विलास.djvu/५४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
४४
भाव-विलास


शब्दार्थ—काहू—किसीं को भी।

भावार्थ—अधिक बल, धन, कुल, अथवा अधिक रूप के होने के कारण अहंकार वश अपने बराबर किसी की न गिनने के भाव को गर्व कहते हैं।

उदाहरण
सवैया

देव सुरासर सिद्ध बधून को, एतौ न गर्व जितौ इह ती को।
आपने जोबन के गुन के, अभिमान, सबै जग जानत फीको॥
काम की ओर सकोरति नाक, न लागत नाक को नायक नीको।
गोरी गुमानिन ग्वारि गमारि, गिने नहिं, रूप रती को रती को॥

शब्दार्थ—एतौ न गर्व—इतना गर्व नहीं। जिनौ इह ती को—जितवा इस स्त्री को। सबै जग जानत फीको—सारे संसार को नगण्य समझती है। काम—कामदेव। सकोरतिनाक—नाकसिकोड़ती है अर्थात् तुच्छ समझती है। नाक को नायक—इन्द्र। नीको—भला, अच्छा। गुमानिन—अभिमानिनी। गमारि—गंवारिन। गिने नहि—नही गिनती। रती—कामदेव की स्त्री। रती को—रती भर भी।

२०—उतकण्ठा
दोहा

प्रिय सुमिरन ते गात मैं, गौरव आरसु होय।
देस न काल सह्यो परै, उत्कण्ठा कहु सोय॥

शब्दार्थ—आरसु—आलस्य।