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आंतर संचारी-भाव


तिहुँलोक की सुन्दरताई की एक, अनूपम रूप की रासि मची।
नर, किन्नर, सिद्ध, सुरासुरहून की, बञ्चि, बधूनि बिरश्चि रची॥

शब्दार्थ—कैधौ—या, अथवा। कलाधर—चन्द्रमा। अबलाकिधौ कामकी—अथवा रति है। कैधौसची—या इन्द्राणी है। भौन—घर। दीपसिखा—दीपक की ज्योति। बश्चि—छोड़कर। विरञ्चि—ब्रह्मा।

उदाहरण चौथा (अध्यवसाय)
सवैया

कहु कौन की चम्पक चारु लता, यह देखि सबै जनभूलि रहै।
'कविदेव' ए ती मैं कहा बिलसे, बिवसी फल से धरि धूलि रहै॥
तिहि ऊपर को यह सोम नवोतम, तौम चहूँदिस झूलि रहै।
चित में चितु चोरत कोए तहाँ, नवनील सरोज से फूलि रहै॥

शब्दार्थ—सबै........भूलिरहै—सभी मोहित हो रहे हैं। चहूंदिस—चारों ओर। नवलीलसरोज—नए नीले कमल।

दोहा

भरतादिक सत कवि कहै, विभचारी तैंतीस।
वरनत छल चौतीस यों, एक कविन केईस॥

शब्दार्थ—विभचारी—व्यभिचारी।

भावार्थ—भरत आदि आचार्यों ने कुल तैंतीस व्यभिचारी भाव कहे हैं, परन्तु कुछ कविवर 'छल' नामक एक चौंतीसवाँ व्यभिचारी भाव और मानते हैं।