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रस
दोहा
जो विभाव अनुभाव अरु, विभचारिनु करि होइ।
थिति की पूरन बासना, सुकवि कहत रस सोइ॥
जोहि प्रथम अनुराग मैं, नहिं पूरब अनुभाव।
तौ कहिये दम्पतिनु के, जन्मान्तर के भाव॥
ताहि विभावादिकन ते, थिति सम्पूरन जानि।
लौकिक और अलौकिक हि, द्वै बिधि कहत बखानि॥
नयनादिक इन्द्रियनु के, जोगहि लौकिक जानु।
आतम मन संजोग तै, होय अलौकिक ज्ञानु॥
कहत अलौकिक तीनबिधि, प्रथम स्वापनिक मानु।
मानोरथ कविदेव अरु, औपनायक बखानु॥
भावार्थ—विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी भावों द्वारा जो स्थायी भाव व्यक्त किये जाते हैं, उन्हें रस कहते हैं। ये रस लौकिक और अलौकिक दो प्रकार के होते हैं। नयनादि इंद्रियों से संबंध रखनेवाले लौकिक और आत्मा तथा मन से संबंध रखने वाले अलौकिक कहलाते हैं। अलौकिक के भी तीन भेद है। १—स्वापनिक २—मानोरथिक ३—औपनायक।