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पृष्ठ:भाषा-भूषण.djvu/३९

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बस्तु दुराधै [छ प्रकार के अपहु ति अलंकार ] धर्म दुरै आरोप ते शुद्ध-अपहनुति जानि । पर नाहिं उरोज ए कनकलता-फल मानि ॥६३ ॥ जुक्ति से हेतु-अपहनुति होइ । तीव्र चंद नहि नि-रवि बड़वानलही जोइ ॥ ६४ ॥ पर्यस्त जु गुन एक कों और विष प्रापि । होइ सुधाधर नाहिं यह बदन-सुधाधर प्रोप ॥ ६५ ॥ भ्रांति अपनति बचन से भ्रम जब पर कां जाइ । ताप करत है, ज्वर नहीं, सखी मदन-तप आइ ॥ ६ ॥ छेकापह्लति जुक्ति करि पर से बात दुराइ । करत अधर छत पिय नहीं, सखी! सीत-रितु-बाइ ॥ ६७॥ कैतवऽगहति एक को मिसु करि बरनै मान । तीछन ताय-कटाच्छ-मिस बरषत मनमथ बान ॥ ८ ॥ [विविध उत्प्रेक्षालंकार ] उत्प्रेक्षा संभावना बस्तु, हेतु, फल लेखि । नैन मनो अबिद हैं सरस बिताल बिसेषि ॥ ६ ॥ मनो चली प्रांगन कठिन तातें राते पाइ। तुअ पद-समता को कमल जल सेवत इक पाह। ७०। [भतिशयोक्ति ] प्रतियोक्ति रूपक जहाँ केवलही उपमान । कनकलता पर चंद्रमा धरे धनुष द्वै बान ॥ ७ ॥