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( २२ ) [प्रहर्षण] तीन प्रहर्षन जतन बिनु बांछित फल जो होइ । बांछितर ते अधिक फल श्रम बिनु लहिए सोइ ॥१६॥ साधत जाके जतन कौं बस्तु चढ़ी कर सेाइ । जाको चित चाहत हुती पाई दूती होइ ॥ १६१ ॥* दीपक को उद्यम किया तो लौं उदयो भानु । निधि अंजन की औषधी सेहत लह्यौ निदानु ॥ १६२ ॥ [विषाद] सो विषाद चित चाह ते उलटा कछु है जाइ । नीबी परसत श्रुति परी चरनायुध धुनि प्राइ ॥ १६३ ॥ [ उल्लास] गुन भौगुन जब एक तं और धरै उल्लास । नहाइ संत पावन करें गंग धर इहि श्रास ॥ १६४॥ [अवज्ञा] होत अवज्ञा और के लगे न गुन भारु दोष । परसि सुधाकर किरन को ग्बुलै न पंकज कोप ॥ १६५ ॥ [ अनुज्ञा ] होत अनुज्ञा दोष को जो लीजै गुन मानि । होहि बिपति जामें मदा हि चदन हरि पानि ॥१६॥ .
- पाठा० अंतिम शब्द ' तेइ और वेइ ' है । ( ( प्र० क )