पृष्ठ:भाषा-भूषण.djvu/५३

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( २३ ) [लेश अलंकार] गुन में दोप रु दोष में गुन कल्पन से लेष । सुक यहि मधुरी बानि तें बंधन लह्या बिसेष ॥ १६७ ॥ [मुद्रा अलंकार ] मुद्रा प्रस्तुत पद विषै और अर्थ प्रकास । प्रली जाइ किन पीउ तहँ जहाँ रमीली बास ॥ १६८ ॥* [ रत्नावली ] रत्नावलि प्रस्तुत प्ररथ क्रम ते और हु नाम । रसिक चतुरमुख लक्ष्मिपति सकल ग्यान को धाम ॥१६॥ [ तद्गुण अलंकार] तद्गुन तजि गुन प्रापनौ संगति को गुन लेह । बेसरि मोती अधर मिलि पद्मराग छवि देइ ॥ १७० ॥ [पूर्वरूप अलंकार ] पूर्वरूप लै संग गुन जि सिरि अपना लेति । दुजौ जब गुन ना मिट किए मिटन के हेतु ॥ १७१ ॥ सेस स्याम है सिव-गरे जस ते उजल होत । दीप बढ़ाए हूँ किया रसना-मनिन उदोत ॥ १७२ ॥ [अतद्गुण अलंकार ] सोइ अतद्गुन संग ते जब गुन लागत नाहिं। पिय अनुगगी ना भयो बमि रागी मन माहिं ॥ १७३ ॥

  • पाठा० मन मराल नीकै धरत तुअ पद पंकज पास ॥ (प्र० क )

पाठा० भूमिपति । (प्र. ख )