पृष्ठ:भाषा-भूषण.djvu/५५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

( २५ ) व्याजाक्ती कछु [ सूचम अलंकार ] सुच्छम पर प्रासय त सैननि में कछु भाइ । में देख्यो उहि सीसमनि केसनि लियो छपाइ ॥ १८१॥ [ पिहित अलंकार ] पिहित इपी पर-चात को जानि दिखावै भाइ । प्रातहि प्राये सेज पिय हँमि दाबत तिय पाइ ॥ १८२॥ [ ग्याज्योक्ति अलंकार ] और विधि कहें दुरै आकार । सखि सुक कीन्ह्यो कर्म यह दंननि जानि अनार ॥ १८३ ॥ [ गूढोक्ति अलंकार ] गूढउक्ति मिसि प्रौर के कीजे पर उपदेस । काल्हि सखी हों जाउँगी पूजन देव महेस ॥ १८४ ॥ [विवृतोक्ति अलंकार ] श्लेष छप्यो परकट किये विवृताक्ति है ऐन । पूजन देव महेस को कहति दिखाए सैन ॥ १८५ ॥ [ युक्ति अलंकार ] यहै जुक्ति कीन्हें क्रिया मर्म छपाया जाइ । पीय चलत असू चले पोचत नैन जभाइ ॥ १८६ ॥ [लोकोक्ति अलंकार ] लोकोक्ती कछु बचन में लो* लोकप्रवाद । नैन मंदि पर मास लों सहिहीं बिरह बिषाद ॥ १८७ ॥

  • पाठा० सों लीन्हें । (प्र० क० )