पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/१२५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१०० भाषा-विज्ञान विभक्तियों के लिये परसर्गों का प्रयोग होता है। जहाँ संस्कृत में विशेषण के रूप सर्वथा संज्ञा के समान होते हैं वहाँ द्राविड़ में विशेषण के त्रिभक्ति रूप होते ही नहीं 1 मुंडा भाषाओं की भाँति द्राविड़ में भी उत्तम पुरुप सर्वनाम के दो रूप होते हैं, जिनमें से एक में श्रोता भी अंतर्भूत रहता है। इन भापात्रों में कर्मवाच्य नहीं होता। वास्तव में इनमें सची क्रिया ही नहीं होती। इनकी वाक्य-रचना का अध्ययन वड़ा रोचक होता है। इन भाषाओं का और आर्य भाषाओं का एक- दूसरे पर बड़ा प्रभाव पड़ा है। इस परिवार की भी तीन शाखाएँ भारत में पाई जाती हैं- ईरानी, दरद और भारतीय 1 ईरानी भाषाएँ बलूचिस्तान, सीमाप्रांत भार्य-परिवार और पंजाब के सीमांत पर बोली जाती हैं। उनमें सबसे अधिक महत्व की और उन्नत भापा फारसी है, जो पश्चिमी ईरानी कहलाती है, पर यह भारत में कहीं भी बोली नहीं जाती। भारत में उसके साहित्यिक और अमर (Classical) रूप का अध्ययन मात्र होता है। केवल वचिस्तान में देवारी नामक फारसी विभाषा का व्यवहार होता है। पर भारत के शिष्ट मुसलमान जिस उर्दू का व्यवहार करते हैं उसमें फारसी शब्द तो बहुत रहते हैं पर वह रचना की दृष्टि से 'खड़ी बोली' का दूसरा नाम है। पूर्वी ईरान में वलोची, पोरमुदी, अफगान और जालचा भापाग हैं इनमें से जो भापाएँ भारत में बोली जाती हैं उनमें से बलोची बलूचि- स्तान और पश्चिमी सिंध में बोली जाती हैं। बलोची ही ईगनी भाया में सबसे अधिक संहित और श्राप मानी जाती है। उसकी रचना में बड़ी प्राचीनता और व्यवहिति की प्रवृत्ति की कमी पाई जाती है । उसकी पूर्वी बोलियों पर सिंधी, लहँदा आदि का अच्छा प्रभाव पड़ा है। उममें अरबी और फारसी का भी पर्याप्त मिश्रण हुआ है। बलोची में ग्राम-गीतों और ग्राम-कथायों का यत्किंचित् माहिल्य भी मिलता है। पोरगुही 'अथवा वर्गिता अफगानिस्तान के ठीक केंद्र में