पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/१४३

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११८ भापा-विज्ञान के विकारों और परिवर्तनों का इतिहास तथा सिद्धांत दोनों ही आ जाते हैं, पर ध्वनियों का विश्लेपण और वर्गीकरण, उनकी परीक्षा और शिक्षा 'ध्वनि-शिक्षा' का विपय होती है। ध्वनि की उत्पत्ति, उच्चारण- स्थान, प्रयत्न आदि का सीखना सिखाना इस ध्वनि-शिक्षा अथवा वर्ण- शिक्षा के अंतर्गत आता है। इसी से आजकल उसे परीक्षा-मूलक ध्वनि- शिक्षा कहते हैं। इसकी परीक्षा-पद्धति इतनी बढ़ गई है कि बिना कोमोग्राफ (Kymograph ) आदि यंत्रों और समीचीन प्रयोगशाला के 'शिक्षा' का अध्ययन संभव ही नहीं। उसकी परीक्षा-प्रधानता को देखकर ही अनेक विद्वान् उसे ही विज्ञान मानते हैं और कहते हैं कि ध्वनि-विचार तो उसका आथित विवेचन मात्र है। हिंदी के कई विद्वान् उस शिक्षा-शास्त्र के लिये ध्वनि-विज्ञान, वर्ण-विज्ञान आदि नामों का व्यवहार करते हैं। पर अध्ययन की वर्तमान स्थिति में वर्ण-पिचार अथवा शनि-विचार को ही विज्ञान कहना उचित देख पड़ता विज्ञान लक्ष्यों की परीक्षा और लक्षणों का विधान दोनों काम करता है और यदि परीक्षा और सिद्धांत दोनों का पृथक अध्ययन किया जाय तो सिद्धांत के विचार को ही विज्ञान कहना अधिक उपयुक्त होगा। और यदि केवल वैज्ञानिक प्रक्रिया को देखकर विज्ञान नाम दें तो दोनों ही बातें ध्वनि-विज्ञान के अंतर्गत आ जाती हैं। आजकल ध्वनि-विज्ञान की सीमा बढ़ भी रही है। इसी से हम धनि-शिक्षा और ध्वनि-विचार का यहाँ प्रयोग करेंगे और ध्वनि-विज्ञान को दोनों के लिये एक सामान्य संज्ञा मान लेंगे। ध्वनि-विज्ञान का मूलभूत अंग ध्वनि-शिक्षा है। उसमें वैज्ञानिक दृष्टि से वाणी का अध्ययन किया जाता है--वर्णों की उत्पत्ति कैसे होती ध्वनि-विज्ञान के प्रयोजन है, वर्ण का सच्चा स्वरूप क्या है, भाण-ध्वनि, ध्वनि-मात्र, अन्य अवांतर श्रुति आदि क्या है ? ऐसे अनेक प्रश्नों का परीक्षा द्वारा विचार किया जाता है। अत: इन 'रहस्यों का भेदन ही इस सूक्ष्म ज्ञान की प्राप्ति ही उसका सबसे बड़ा प्रयोजन होता है। 1