पृष्ठ:भाषा-विज्ञान.pdf/१४७

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. १२२ मापा-विज्ञान बाहर निकलती हैं, इसका विचार करके उसके स्वर और व्यंजन के दो भेद किए जाते हैं। जब किसी नाद-ध्वनि को मुख से बाहर निकलने में कोई रुकावट नहीं पड़ती और न निःश्वास ध्वनियों का वर्गीकरण किसी प्रकार की रगड़ खाती है तब वह ध्वनि तर कहलाती है। अर्थात् स्वर के उच्चारण में मुख-द्वार छोटा-बड़ा तो होता है पर वह विल्कुल बंद सा भी नहीं होता जिससे बाहर निकलनेवाली हवा रगड़ खाकर निकले । स्वरों के अतिरिक्त शेप सब ध्वनियाँ व्यंजन कहलाती हैं । स्वरों में न किसी प्रकार का स्पर्श होता है और न घर्पण, पर व्यंजनों के उच्चारण में थोड़ा-बहुत घर्षण अवश्य होता है । इसी से स्वर-तंत्रियों से उत्पन्न शुद्ध नाद 'स्वर' ही माने जाते हैं। - यह स्वर और व्यंजन का भेद वास्तव में श्रोता के विचार से किया जाता है। स्वरों में श्रावण-गुण अथवा श्रवणीयता अधिक होती है अर्थात् साधारण व्यवहार में समान प्रकार से उच्चरित होने पर व्यंजन की अपेक्षा स्वर अधिक दूरी तक सुनाई पड़ता है। 'क' की अपेक्षा 'अ' अधिक दूर तक स्पष्ट सुन पड़ता है, इसी से साधारणतया व्यंजनों का उच्चारण स्वरों के बिना असंभव माना जाता है । स्वर तो सभी नाद होते हैं, पर व्यंजन कुछ नाद होते हैं और कुछ श्वास। सामान्य नियम यह है कि एक व्यंजन उच्चारण-स्थान से उच्चरित होनेवाले 'नाद' का प्रतिवर्ण 'श्वास' अवश्य है; जैसे- नाद कंठ तालु मूर्धा ओष्ट दंत दंतमूली ज पर यह नहीं कहा जा सकता कि प्रत्येक भाषा अथवा बोली में दोनों स्थान श्वास क ग च ड ब द् त स